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________________ समयसार के अधिकारों का विहंगावलोकन 209 होने से और उस का ही अनुभव करता होने से तथा उस भाव में बन्ध का सदा अभाव होने से ज्ञानी को बन्ध नहीं है ऐसा कहा जाता है। दूसरे, ज्ञानी का विवेक जागृत हुआ होने से, जैसे वैद्य ज़हर खाने पर भी मरता नहीं, वैसे ज्ञानी भी विवेकपूर्वक अपने बल की कमी के कारण अर्थात् अपनी विवशता के कारण भोगभोगते हुए भी, उसे बहुत ही अल्प बन्ध होने से, उसे बन्ध नहीं है ऐसा कहा जाता है यानि ज्ञानी को राग में और बन्ध के अन्य कारणों में “मैंपन' नहीं होता और स्वयं बन्ध रूप भी स्वेच्छा से परिणमित नहीं होता इसलिये इन दोनों अपेक्षाओं से उसे बन्ध नहीं है ऐसा कहा जाता है। __ तीसरे, भेद ज्ञान कराने को और सम्यग्दर्शन प्राप्त कराने को एकमात्र शुद्धात्मा की ही शरण लेना होने से, जो कि दृष्टि के विषय रूप शुद्धात्मा में बन्ध का सदा अभाव ही है, वही इस अधिकार का सार है। श्लोक २७८-२७९ : गाथार्थ :- 'जैसे स्फटिक मणि शुद्ध होने से (यानि ज्ञानी जिसमें 'मैंपन' करता है वह शुद्धात्मा स्वयं शुद्ध होने से) रागादि रूप से (लालिमा आदि रूप से) अपने आप नहीं परिणमता (यानि ज्ञानी स्वेच्छा से राग रूप नहीं परिणमता यानि इच्छापूर्वक राग नहीं करता) परन्तु अन्य रक्त आदि द्रव्यों द्वारा वह रक्त (लाल) आदि किया जाता है, उसी प्रकार ज्ञानी अर्थात् (शुद्धात्मा में ही 'मैंपन' करते हुए) आत्मा शुद्ध होने से (यानि शुद्धात्मा स्वयं शुद्ध होने से) रागादि रूप अपने आप नहीं परिणमता परन्तु अन्य रागादि दोषों द्वारा (यानि उसके योग्य ऐसे कर्म के उदय के निमित्त कारण से) वह रागी आदि किया जाता है (वह अपनी विवशता के कारण रागी-द्वेषी होता है यानि राग-द्वेष रूप परिणमता है)।' _श्लोक १७५ :- ‘सूर्यकान्त मणि की भाँति (जैसे सूर्यकान्त मणि स्वयं से ही अग्नि रूप नहीं परिणमती, उसके अग्नि रूप परिणमन में सूर्य का बिम्ब निमित्त है, उसी प्रकार) आत्मा स्वयं को रागादि का निमित्त कभी भी नहीं होती (शुद्धात्मा स्वयं शुद्ध होने से, रागादि रूप अपने आप कभी नहीं परिणमती), उसमें निमित्त पर संग ही (पर द्रव्य का संग ही) है - ऐसा वस्तु स्वभाव प्रकाशमान है (सदा वस्तु का ऐसा ही स्वभाव है, किसी ने किया नहीं है)।' __ अर्थात् आपने पूर्व में जो ‘निमित्त-उपादान' की चर्चा में देखा कि विवेकी मुमुक्षु निर्बल निमित्तों को त्यागता है यानि उनसे दूर ही रहता है क्योंकि वह जानता है कि वस्तु का ऐसा ही स्वभाव है कि ख़राब निमित्त से उसका पतन हो सकता है। यह है जैन सिद्धान्त का अनेकान्तवाद।
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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