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________________ 208 सम्यग्दर्शन की विधि होता), इसी प्रकार ज्ञानी पुद्गल कर्म के उदय को भोगता है तथापि बन्धता नहीं।' क्योंकि ज्ञानी विवेकी होने से उन कर्मों के उदय को भोगते हुए भी उस रूप नहीं होता अर्थात् स्वयं को उस रूप नहीं मानता, परन्तु अपना 'मैंपन' एकमात्र शुद्ध भाव में ही होने से और उस उदय को चारित्र की कमज़ोरी के कारण भोगता रहने से, उसे बन्ध नहीं है अर्थात् उसके अभिप्राय में भोग के प्रति ज़रा भी आदर भाव नहीं है क्योंकि उसका पूर्ण आदर भाव एकमात्र स्वतत्त्व रूप शुद्धात्मा में ही होता है और इस अपेक्षा से उसे बन्ध नहीं है परन्तु भोग में भी अर्थात् भोग भोगते हुए भी निर्जरा है, ऐसा कहा जाता है। गाथा २०५ : भावार्थ :- ‘ज्ञान गुण से रहित (विवेक रूप ज्ञान से रहित) बहुत से लोग (बहुत प्रकार के कर्म करने पर भी) इस ज्ञान स्वरूप पद को प्राप्त नहीं करते (यानि सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं करते); इसलिये हे भव्य! यदि तू कर्म से सर्वथा मुक्त होना चाहता है (यानि अपूर्व निर्जरा करना चाहता है) तो नियत ऐसे इसे (ज्ञान को) (यानि परम पारिणामिक भाव रूप यानि आत्मा के सहज परिणमन को जो कि सामान्य ज्ञान रूप है कि जिसे ज्ञायक अथवा शुद्धात्मा भी कहा जाता है, उसे) ग्रहण कर (यानि उसमें ही 'मैंपन' करके उसका ही अनुभव करके, सम्यग्दर्शन प्रगट कर)।' गाथा २०६ : गाथार्थ :- (हे भव्य प्राणी) ! तू इस में नित्यरत अर्थात् प्रीतिवाला हो, इसमें नित्य सन्तुष्ट हो, और इस से तृप्त हो; (ऐसा करने से) तुझे उत्तम (उत्कृष्ट) सुख होगा।' मतलब शुद्धात्मा के आश्रय से ही मोक्ष मार्ग और मोक्ष प्राप्त होगा जो कि अव्याबाध सुख रूप है। श्लोक १६२ :- 'इस प्रकार नवीन बन्ध को रोकता हुआ और (स्वयं) अपने आठ अंगों सहित होने के कारण (सम्यग्दृष्टि स्वयं सम्यग्दर्शन के आठ अंग सहित होता है, इस कारण से) निर्जरा प्रगट होने से पूर्वबद्ध कर्मों का नाश कर डालता हुआ सम्यग्दृष्टि जीव स्वयं अति रस से (अतिन्द्रिय रस - सुधा रस में मस्त होता हुआ) आदि-मध्य-अन्त रहित ज्ञान रूप होकर (यानि अनुभूति में मात्र ज्ञान सामान्य ही है, अन्य कुछ नहीं होने से कहा कि आदि-मध्य-अन्त रहित ज्ञान रूप होकर) आकाश के विस्तार रूपी रंगभूमि में अवगाहन करके (यानि सम्यग्दृष्टि जीव के लिये वह ज्ञान स्वरूप लोक ही उसका सर्व लोक होने से, उसी रंगभूमि में रहकर यानि चिदाकाश में अवगाहन करके) नृत्य करता है (यानि अद्वितीय आनन्द का आस्वाद लेता है-अपूर्व आनन्द को भोगता है)।' ७. बंध अधिकार :- ज्ञानी को एकमात्र सहज परिणमन रूप शुद्धात्मा में ही “मैंपन'
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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