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समयसार के अधिकारों का विहंगावलोकन
महा नय पक्ष कक्षा का (नय के आग्रह को) उल्लंघन करके (तत्त्ववेदी = सम्यग्दृष्टि होकर) अन्दर और बाहर (अर्थात् पूर्ण आत्मा में) समता रस रूपी एक रस ही जिसका स्वभाव है, ऐसी अनुभूति मात्र एक अपने भाव को (परम पारिणामिक भाव रूप शुद्धात्मा को ) प्राप्त करते हैं। '
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श्लोक ९९ :- ‘अचल (अर्थात् तीनों काल वैसा का वैसा ही परिणमता), व्यक्त (अनुभव प्रत्यक्ष) और चित् शक्तियों के समूह के भार से अत्यन्त गम्भीर (अर्थात् मात्र ज्ञान घन रूप) यह ज्ञान ज्योति (यानि ज्ञान सामान्य भाव रूप ज्ञायक = शुद्धात्मा) अन्तरंग में उग्र रूप से इस प्रकार से जाज्वल्यमान हुई कि- आत्मा अज्ञान में (पर की) कर्ता होती थी वह अब कर्ता नहीं होती (यानि पर का कर्तापना धारण करनेवाले भाव में एकत्व नहीं करती) और अज्ञान के निमित्त से पुद्गल कर्म रूप होती थी, वह कर्म रूप नहीं होती (अर्थात् अज्ञान के निमित्त से जो बन्ध होता था वह अज्ञान जाते ही, उसके निमित्त से होनेवाला बन्ध भी अब नहीं); और ज्ञान, ज्ञान रूप ही रहता है (मतलब ज्ञानी अपने को सामान्य ज्ञान रूप शुद्धात्मा ही अनुभव करता है जो कि त्रिकाल ज्ञान रूप ही रहता है) और पुद्गल, पुद्गल रूप ही रहता है (यानि ज्ञानी पुद्गल को पुद्गल रूप और उससे होनेवाले भावों को भी उस रूप ही जानकर, उनमें 'मैंपन' नहीं करता अर्थात् ज्ञानी इस प्रकार भेद ज्ञान करता है)।' इस प्रकार सम्यग्दर्शन प्रगट करता है।
३. पुण्य-पाप अधिकार :- इस अधिकार में भी सम्यग्दर्शन प्राप्त कराने के लिये जो सम्यग्दर्शन का विषय (दृष्टि का विषय) है यानि जो शुद्धात्मा है, उसमें बन्ध रूप कोई भी भाव न होने से उसमें सभी विभाव भाव का अभाव होने से, बन्ध मात्र भाव यानि शुभ भाव और अशुभ भाव, ये दोनों (सम्यग्दर्शन के विषय में) नहीं हैं ऐसा बतलाने के लिये दोनों को एक समान कहा है यानि पुण्य और पाप यानि शुभ भाव और अशुभ भाव, सम्यग्दर्शन के विषय रूप परम पारिणामिक भाव रूप • सहज परिणमन रूप शुद्ध आत्मा में न होने से, दोनों को समान अपेक्षा से हेय कहा है अर्थात् दोनों विभाव भाव होने से - बन्ध रूप होने से एक समान हेय है।
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यहाँ किसी को एकान्त से ऐसा नहीं समझना क्योंकि अशुभ भाव में परिणमने का कभी कोई उपदेश होता ही नहीं, परन्तु यहाँ बतलाये अनुसार सम्यग्दर्शन कराने को, दोनों भावों से भेद ज्ञान कराया है और भेद ज्ञान की अपेक्षा से दोनों समान ही हैं, अन्यथा नहीं।
यदि कोई अन्यथा पुण्य को हेय समझकर अथवा तो पुण्य-पाप को समान रूप से हेय समझकर, स्वच्छन्दता से पाप रूप अर्थात् अशुभ भाव से परिणमते हों, उसी में रचते हों तो वह