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________________ 202 सम्यग्दर्शन की विधि अपेक्षा से भी निमित्त को परम अकर्ता कहा जाता है। परन्तु यदि निमित्त को कोई एकान्त से अकर्ता माने और स्वच्छन्दता से निर्बल निमित्तों का ही सेवन करे तो वह जीव अनन्त संसारी होकर, अनन्त दुःख को प्राप्त होता है। विवेक ऐसा है कि - जीव सब ख़राब निमित्तों से बचकर, शास्त्र स्वाध्याय इत्यादि अच्छे निमित्तों का सेवन कर के, शीघ्रता से मोक्षमार्ग में आगे बढ़ता है; न कि एकान्त से निमित्त को अकर्ता मानकर, स्वच्छन्दता से सब निर्बल निमित्तों को सेवन करता हुआ अनन्त संसारी अर्थात् अनन्त दुःखी होता है। विवेकीजन जानते हैं कि ‘मात्र निमित्त से कुछ भी नहीं होता और निमित्त बिना भी कुछ नहीं होता' अर्थात् स्व का सम्यग्दर्शन रूप जो परिणमन है, वह मात्र निमित्त मिलने से होगा, ऐसा नहीं परन्तु उसके लिये स्वयं अपना-उपादान रूप पुरुषार्थ करे तो ही होगा यानि सभी जनों को सम्यग्दर्शन के लिये नियति इत्यादि कारणों के सामने न देखकर अपना पुरुषार्थ उस दिशा में स्फुरित करना अति आवश्यक है। दूसरा विवेकी जीव समझते हैं कि जो अपने भाव बिगड़ते हैं वे वैसे निमित्त मिलने से बिगड़ते हैं; ऐसा जानकर, वे ख़राब निमित्तों से निरन्तर दूर ही रहने का प्रयत्न करते है, जैसे कि ब्रह्मचर्य और आत्म ध्यान के लिये भगवान ने एकान्तवास का सेवन करना बतलाया है। ऐसा है विवेक निमित्त -उपादान रूप सम्बन्ध का, इसलिये उसे इस परिप्रेक्ष्य में ही समझना, अन्यथा नहीं। यहाँ सम्यग्दर्शन कराने को अर्थात् पर से दृष्टि हटाने के लिये निमित्त को परम अकर्ता कहा है, अन्यथा नहीं। ___ श्लोक ६९ :- ‘जो नय पक्षपात को छोड़कर (अर्थात् हमने पूर्व में अनेक बार बतलाये अनुसार जिसे किसी भी एक नय का आग्रह हो अथवा तो कोई मत-पन्थ-व्यक्ति विशेष रूप पक्ष का आग्रह हो और जो वैसे पूर्वाग्रह-हठाग्रह छोड़ सकते हैं वे) स्वरूप में गुप्त हो कर (यानि स्व में अर्थात् शुद्धात्मा में ही “मैंपन' करके सम्यग्दर्शन रूप परिणम कर) सदा रहते हैं वे ही (यानि नय और पक्ष को छोड़ते हैं, वैसे मुमुक्षु जीव ही सम्यग्दर्शन प्राप्त कर सकते हैं), जिनका चित्त विकल्प मल से रहित शान्त हुआ है ऐसे होते हुए (निर्विकल्प ‘शुद्धात्मा' का अनुभव करते हुए) साक्षात् अमृत को (अर्थात् अनुभूति रूप अतीन्द्रिय आनन्द को) पीते हैं (अनुभव करते हैं)।' अर्थात् सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिये सभी को नय और पक्ष का आग्रह छोड़ने योग्य है। श्लोक ९० :- ‘इस प्रकार जिसमें बहुत विकल्पों का जाल अपने आप उठ रहा है ऐसी
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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