SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 210
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 204 सम्यग्दर्शन की विधि उनके महा अनर्थ का कारण है। यदि कोई इसी प्रकार से एकान्त समझकर, इसी प्रकार से एकान्त प्रतिपादन करता हो तो वह स्वयं तो भ्रष्ट है ही और अन्य अनेकों को भी भ्रष्ट कर रहा है। जैन सिद्धान्त में विवेक का ही बोलबाला है यानि सारा कथन जिस अपेक्षा से कहा हो, उसी अपेक्षा से ग्रहण करना चाहिये, यही विवेक है; इसलिये सभी मोक्षार्थियों को पूर्व में बतलाये अनुसार एकमात्र आत्म प्राप्ति के लक्ष्य से नियम से शुभ में ही रहने योग्य है, यही जिन सिद्धान्त का सार है जो हमने पूर्व में बार-बार बताया है। इसलिये यहाँ बतलाये अनुसार ही अर्थात् विवेकपूर्वक ही सर्व जन सम्यग्दर्शन को पाते हैं और विवेकपूर्वक ही निर्वाण को पाते हैं। गाथा १५१ : गाथार्थ :- “निश्चय से जो परमार्थ है (अर्थात् परम पारिणामिक भाव रूप - सहज परिणमन रूप शुद्धात्मा है), समय है, शुद्ध है, केवली है, मुनि है, ज्ञानी है, उस स्वभाव में (शुद्धात्मा में) स्थित मुनि निर्वाण पाते हैं।' । गाथा १५२ : गाथार्थ :- ‘यदि परमार्थ में अस्थित (अर्थात् मिथ्या दृष्टि) जीव तप करता है तथा व्रत धारण करता है, उसके सब तप और व्रत को सर्वज्ञ बाल तप और बाल व्रत कहते हैं।' मतलब इन बाल तप और बाल व्रत छोड़ने को नहीं कहते परन्तु इन से भी परम उत्कृष्ट ऐसा आत्म ज्ञान प्राप्त करने के लिये प्रोत्साहित करते हैं और जो परमार्थ में स्थित हैं, उन्हें तो नियम से आगे व्रत-तप इत्यादि आते ही हैं, ऐसा है जिन सिद्धान्त का विवेक जो कि आत्मा को ऊपर चढ़ने को ही कहता है, न कि अन्यथा। यानि व्रत-तप छोड़कर नीचे गिरने को कभी नहीं कहता। श्लोक १११ :- “कर्म नय के अवलम्बन में तत्पर (यानि कर्म नय के पक्षपाती यानि कर्म को ही सर्वस्व माननेवाले) पुरुष डूबे हुए हैं क्योंकि वे ज्ञान को नहीं जानते (यानि ज्ञान रूप आत्मा की यानि अपनी शक्ति में विश्वास नहीं परन्तु कर्म की यानि पर की शक्ति में विश्वास है)। ज्ञान नय के इच्छुक पुरुष भी डूबे हुए हैं (क्योंकि उन्हें एकान्त से ज्ञान का ही पक्ष होने से वे कर्म को कुछ वस्तु ही नहीं मानते और एकान्त से निश्चयाभासी रूप से परिणमते हैं) क्योंकि वे स्वच्छन्दता की वजह से अति मन्द उद्यमी हैं (क्योंकि वे निश्चयाभासी होने से, पुण्य और पाप को समान रूप से हेय अर्थात् सभी अपेक्षा से हेय अर्थात् एकान्त से हेय मानते होने से, कुछ भी पुरुषार्थ नहीं करते। एकान्त से समझते हैं और वैसा ही बोलते हैं कि 'मैं तो ज्ञान मात्र ही हूँ' और रमते हैं संसार में, अर्थात् आत्म ज्ञान के लिये योग्यता इत्यादि रूप अभ्यास भी नियतिवादियों की तरह नहीं करते क्योंकि वे मानते हैं कि आत्म ज्ञान के लिये योग्यता तो उसके काल में आ ही जायेगी; इस प्रकार अपने को ज्ञान मात्र मानते हुए और वैसे ही भ्रम में रहते होने से, धर्म में
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy