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________________ समयसार के अनुसार सम्यग्दर्शन का विषय 183 गौण करते ही ज्ञायक भाव प्राप्त होता है। पूर्व में हमने यह बात सिद्ध की ही है कि पर्याय ज्ञायक भाव की ही बनी हुई है, इसलिये उस में से विशेष भाव को गौण करते ही ज्ञायक अर्थात् सामान्य भाव प्रगट होता है, प्राप्त होता है; यही विधि है सम्यग्दर्शन की। आत्मा जो चार भाव रूप परिणमता है, वह विशेष भाव है अर्थात् उदय, क्षायोपशमिक, उपशम और क्षायिक इन चार भाव रूप से आत्मा परिणमता है, ये चार भाव विशेष भाव हैं और ये जिस भाव के बने हुए हैं, उसे परम पारिणामिक भाव या स्वभाव या आत्मा का सहज परिणमन कहते हैं और उसमें मैंपन' करने से और उसका अनुभव करने से ही सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है। गाथा ६ : टीका :- ‘जो स्वयं अपने से ही सिद्ध होने से (अर्थात् किसी से उत्पन्न हुआ नहीं होने से) अनादि सत्ता रूप है और कभी विनाश को प्राप्त नहीं होने से अनन्त है, नित्य उद्योत रूप होने से (अर्थात् सहज आत्म परिणमन रूप = परम पारिणामिक भाव रूप = कारण शुद्ध पर्याय रूप होने से) क्षणिक नहीं है और स्पष्ट प्रकाशमान ज्योति है, ऐसा जो ज्ञायक एक 'भाव' है (अर्थात् परम पारिणामिक भाव है), वह संसार की अवस्था में अनादि बन्ध पर्याय की निरूपणा से (अपेक्षा से) क्षीर-नीर की भाँति कर्म पुद्गलों के साथ एक रूप होने पर भी (अर्थात् परम पारिणामिक भाव रूप जीव के सहज परिणमन में ही बाकी के चार भाव होते हैं जो कि हमने पूर्व में बतलाये ही हैं और समयसार गाथा १६४-१६५ में भी बतलाया ही है कि 'संज्ञ आस्रव जो कि जीव में ही होते हैं, वे जीव के ही अनन्य परिणाम हैं = जीव ही उस रूप परिणमित हुआ है अर्थात् जीव में एक शुद्ध भाग और दसरा अशुद्ध भाग ऐसा नहीं समझकर, समझना ऐसा है कि जीव उदय-क्षयोपशम भाव रूप परिणमित हुआ है अर्थात् जीव में छिपे हुए स्वच्छत्व रूप जो जीव का परिणमन है जो कि परम पारिणामिक भाव कहलाता है, वह भाव ही अन्य चार भाव का सामान्य भाव है अर्थात् जीव में अन्य चार भावों को गौण करके परम पारिणामिक भाव में 'मैंपन' करते ही एक ज्ञायक भाव अनुभव में आता है, यही अनुभव की विधि है। जैसे कि राग-द्वेष रूप परिणमित जीव रागी-द्वेषी ज्ञात होने पर भी, वर्तमान में उस रूप होने पर भी, उन राग-द्वेष को गौण करते ही परम पारिणामिक भाव ज्ञात होता है, वह उसका 'स्व' भाव है कि जिसमें 'मैंपन' करते ही वह जीव 'स्व-समय' = सम्यग्दृष्टि होता है) द्रव्य के स्वभाव की अपेक्षा से (ऊपर बताया हुआ द्रव्य का 'स्व' भाव = परम पारिणामिक भाव = कारण शुद्ध पर्याय से) देखा जाये तो दुरन्त कषाय चक्र के उदय की (अर्थात् कषाय के समूह के अपार उदयों की) विचित्रता के वश प्रवर्तमान जो पुण्य-पाप को उत्पन्न करनेवाले समस्त अनेक रूप शुभ-अशुभ भाव, उनके
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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