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________________ सम्यग्दर्शन की विधि ही अहमियत दी जाती है और आत्म ज्ञान की बातें बहुत ही कम सुनाई देती हैं क्योंकि क्रिया धर्म हठ योग के रूप में हमने कई बार किया है परन्तु आत्म ज्ञान न होने से हम अभी तक संसार में भटक रहे हैं, इसलिये अज्ञानी को लगता है कि क्रिया करने से ही अपना मोक्ष हो जाएगा; ऐसी मिथ्या मान्यता सँजोये वे लोग उत्साहपूर्वक क्रिया धर्म तो करते हैं परन्तु आत्म ज्ञान का विचार भी नहीं करते। 182 गाथा ५ : गाथार्थ :- ‘वह एकत्व - विभक्त (अर्थात् अभेद रूप और भेद रूप) आत्मा को मैं आत्मा के निज वैभव से दिखाता हूँ; (अर्थात् बतलाता हूँ), यदि मैं दिखाऊँ तो प्रमाण (स्वीकार) करना और यदि कहीं चूक जाऊँ तो छल (अर्थात् उल्टा-विपरीत-नुकसानकारक) ग्रहण नहीं करना।' अर्थात् इस शास्त्र से स्वच्छन्द ग्रहण करके तुम ठगे जाओ, वैसा मत करना, क्योंकि वह स्वच्छन्द अनन्त संसार का कारण है, ऐसा आचार्य भगवन्त ने इस गाथा में बतलाया है। वर्तमान में प्राय: इस शास्त्र में से लोगों ने एकान्त ही लिया है ऐसा दिख रहा है, आचार्य भगवन्त ने इसीलिये सब को चेतावनी दी है कि हम यहाँ जिस बात को, जिस कारण से प्रस्तुत कर रहे हैं; उस बात को, उसी अर्थ में और उसी परिप्रेक्ष्य में ग्रहण करना अन्यथा यह शास्त्र आपके लिये अनन्त संसार का कारण भी बन सकता है। गाथा ६ : गाथार्थ :- ‘जो ज्ञायक भाव है (अर्थात् जो ज्ञान सामान्य रूप, सहज परिणमन रूप, परम पारिणामिक भाव रूप शुद्धात्मा है) वह अप्रमत्त भी नहीं और प्रमत्त भी नहीं (अर्थात् उसमें सर्व विशेष भावों का अभाव है क्योंकि वह सामान्य ज्ञान मात्र भाव अर्थात् गुणों के सहज परिणमन रूप सामान्य भाव ही है कि जिसमें विशेष का अभाव ही होता है)- इस प्रकार उसे शुद्ध कहते हैं (अर्थात् वर्तमान में शुद्ध न होने पर भी उसका जो सामान्य भाव है वह त्रिकाली शुद्ध होने के कारण उसे शुद्ध कहने में आता है), और जो ज्ञायक रूप से ज्ञात हुआ (अर्थात् जो जाननेवाला है) वह तो वही है (अर्थात् जो जानने की क्रिया है, उसमें से प्रतिबिम्ब रूप ज्ञेय अर्थात् ज्ञानाकार को गौण करते ही वह ज्ञायक अर्थात् परम पारिणामिक भाव रूप शुद्धात्मा ज्ञात होता है, अनुभव में आता है; यही सम्यग्दर्शन की विधि है अर्थात् जो जाननेवाला है, वही ज्ञायक है), दूसरा कोई नहीं।' अर्थात् ज्ञायक दूसरा और जानने की क्रिया दूसरी, ऐसा नहीं है अर्थात् ज्ञायक ही जानने रूप परिणमित हुआ है; इसलिये ही जानने की क्रिया में से ज्ञानाकार रूप प्रतिबिम्ब गौण करते ही, ज्ञायक उपस्थित ही है अर्थात् आत्मा में से अप्रमत्त और प्रमत्त इन दोनों विशेष भावों को
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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