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________________ 184 सम्यग्दर्शन की विधि स्वभाव रूप नहीं परिणमता (अर्थात् द्रव्य का स्वभाव, वह परम पारिणामिक भाव है जो कि प्रमत्त भी नहीं और अप्रमत्त भी नहीं; वह मात्र एक ज्ञायक भाव है) इसलिये प्रमत्त भी नहीं और अप्रमत्त भी नहीं; वही समस्त अन्य द्रव्यों के भावों से (अर्थात् जीव के चार भाव कि जिसमें अन्य द्रव्य का नैमित्तिकपना है) भिन्न रूप से (अर्थात् जीव के चार भावों को गौण करने पर पंचम भाव रूप = परम पारिणामिक भाव रूप) उपासित किये जाने पर शुद्ध कहलाता है। (यहाँ यह समझना आवश्यक है कि राग किसी भी अपेक्षा से जीव में नहीं है, इत्यादि रूप एकान्त प्ररूपणा जिनमत बाह्य है। इसलिये वैसी प्ररूपणा करनेवाले और उसमें अटके हए भोले जीव = वैसा माननेवाले भोले जीव भ्रम में रहकर अति उत्तम ऐसा मानव जन्म और वीतराग धर्म को फ़ालतू गवाते हैं और वीतरागी बनने का एक अमूल्य अवसर गँवाते हैं)। दाह्य के (जलने योग्य पदार्थ के) आकार रूप होने से अग्नि को दहन कहा जाता है (अर्थात् ज्ञान को ज्ञेयाकार रूप परिणमने से स्व-पर को जाननेवाला कहा जाता है) तथापि दाह्यकृत अशुद्धता उसे नहीं है; इसी प्रकार ज्ञेयाकार होने से उस 'भाव' (ज्ञानाकार) को ज्ञायकता प्रसिद्ध है (अर्थात् ज्ञान का स्व-पर को जानना प्रसिद्ध है) तथापि ज्ञेयकृत अशुद्धता उसे नहीं है। (क्योंकि वह ज्ञेय को ज्ञेय रूप से = तद् रूप से परिणम कर नहीं जानता अर्थात् ज्ञेय को ज्ञान के साथ व्याप्यव्यापक सम्बन्ध नहीं है; उसे अपने आकार = ज्ञानाकार के साथ व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध है कि जिस से अशुद्धता उसमें प्रवेश नहीं करती); क्योंकि ज्ञेयाकार अवस्था में (अर्थात् स्व-पर को जानने के काल में) जो ज्ञायक रूप से (जाननेवाले रूप से) ज्ञात हुआ वह स्वरूप-प्रकाशन की (स्वरूप जानने की = अर्थात् उन ज्ञेयों को ज्ञानाकार रूप से देखने पर और उन्हें ही ज्ञान रूप से देखने पर अर्थात् ज्ञेयों को गौण करते ही परम पारिणामिक भाव अनुभव में आता है। दर्पण के उदाहरण अनुसार प्रतिबिम्ब को गौण करते ही दर्पण का स्वच्छत्व ज्ञात होता है, ऐसी) अवस्था में भी, दीपक की भाँति, कर्ता-कर्म का अनन्यपन होने से (अर्थात् कि जो स्वच्छत्व रूप परिणमन = परम पारिणामिक रूप = ज्ञान सामान्य = निष्क्रिय भाव है कि जो स्व-पर को जाननेवाले विशेष भाव का ही सामान्य भाव है, इसलिये यदि पर को जानने का निषेध किया जाये तो वह स्वच्छत्व का = भगवान आत्मा के निषेध रूप परिणमेगा और समझे बिना निषेध करनेवाले भ्रम को = भ्रमित दशा को पायेंगे और यह अमूल्य मनुष्य जन्म तथा वीतराग का शासन मिला, वह व्यर्थ गँवायेंगे अर्थात् जो जाननेवाला है वह) ज्ञायक ही है-स्वयं जाननेवाला इसलिये स्वयं कर्ता और स्वयं को जाना इसलिये स्वयं ही कर्म....' यहाँ स्व-पर को जानना वह भगवान आत्मा में
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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