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________________ 178 सम्यग्दर्शन की विधि की सीढ़ी है, क्योंकि जो राग है वह आत्मा का विशेष भाव है, कि जिसे गौण करते ही शुद्धात्मा ज्ञात होता है अर्थात् सर्व विशेष भाव साधन रूप हैं और उन्हें गौण करते ही, वे जिसके बने हुए हैं वह परम पारिणामिक भाव साध्य रूप है। यही विधि है सम्यग्दर्शन की। क्योंकि स्थूल से ही सूक्ष्म में जाया जाता है। प्रगट से ही अप्रगट में जाया जाता है अर्थात् व्यक्त से ही अव्यक्त में जाया जाता है, यही नियम है। आध्यात्मिक शास्त्र भेद ज्ञान कराने के लिये विभाव भाव को जीव का नहीं है ऐसा कहते हैं क्योंकि उनमें 'मैंपन' नहीं करना है अर्थात् सम्यग्दर्शन के लिये मात्र ‘शुद्धात्मा' में ही 'मैंपन' करने का होने से इन शास्त्रों में जीव के अन्य भावों को पुद्गल के भाव अर्थात् पर भाव कहा है; न कि लोगों को स्वच्छन्दता से परिणमने के लिये। आत्मा में राग होता ही नहीं, ऐसा शास्त्र का अभिप्राय नहीं है परन्तु उस राग रूप विभाव भाव से भेद ज्ञान कराने के लिये उसे पुद्गल का बतलाया है। जैन सिद्धान्त का विवेक तो यह है कि 'मैंपन' मात्र शुद्धात्मा में और ज्ञान प्रमाण का अर्थात् अशुद्ध रूप से परिणमित पूर्ण आत्मा का और ऐसा विवेक करके, वह मुमुक्षु वैसे राग रूप उदय भाव से हमेशा के लिये मुक्त होने का प्रयत्न (पुरुषार्थ) करता है, न कि वे मेरे नहीं, मैं कर्ता नहीं इत्यादि कह कर उन्हें पोषण करने का स्वच्छन्द आचरता है। ऐसी है विपरीत समझ की करुणा। ऐसा विपरीत भाव ज्ञानी अथवा मुमुक्षु जीव को एक समय भी सहन करने जैसा नहीं लगता। इस कारण ऐसे जीवों के प्रति करुणा आती है क्योंकि वह भाव तो आत्मा को (अर्थात् मुझे) बन्धन रूप है, दुःख रूप है; इसलिये ऐसे भाव का पोषण तो कोई (ज्ञानी अथवा मुमुक्षु कोई) भी नहीं करता। जो स्वच्छन्दता से ऐसे भावों का पोषण करते हैं, वे अपना परम अहित ही कर रहे हैं और वे शास्त्रों का मर्म समझे ही नहीं हैं ऐसा अत्यन्त दु:ख और करुणा के साथ कहना पड़ेगा। हमने इस पुस्तक में यहाँ तक जोशुद्धात्मा का वर्णन किया है, वही भाव हम बारम्बार अनुभवते हैं और उसे ही शब्दों में वर्णित करने का हमने प्रयत्न किया है, जो कि पूर्ण रूप से शक्य ही नहीं क्योंकि उस अनुभव को शब्दों में भगवान भी नहीं कह सकते। इसलिये हम आप से निवेदन करते हैं कि आप यहाँ तक की हई स्पष्टता के आधार पर और आगे समयसार के आधार पर हम जो विशेष स्पष्टता करनेवाले हैं, उन दोनों का मर्म समझकर आप भी 'स्व-तत्त्व' का अनुभव करके परमसुखशान्ति-परमानन्द रूप मुक्ति को प्राप्त करें; बस इसी एकमात्र प्रयोजन से यह सब लिखा जा रहा है।
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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