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________________ सम्यग्दर्शन और मोक्षमार्ग 177 ३५ सम्यग्दर्शन और मोक्षमार्ग यहाँ तक जो भाव हमने दृढ़ किये वे यह हैं कि सम्यग्दर्शन और बाद में मोक्षमार्ग तथा मुक्ति के लिये प्रत्येक को लक्ष्य में लेने योग्य कोई वस्तु है तो वह सम्यग्दर्शन का विषय (दृष्टि का विषय ) है। वही परम पारिणामिक भाव रूप अर्थात् आत्मा के सहज परिणमन रूप शुद्धात्मा है जो कि मुक्ति का कारण होने से कारण समयसार अथवा कारण शुद्ध पर्याय के रूप में भी बतलायी है, उसके बहुत नाम प्रयोग में आते हैं, परन्तु उसमें से शब्द नहीं पकड़कर, एकमात्र शुद्धात्म रूप भाव जैसे कहा है वैसे लक्ष्य में लेना आवश्यक है, क्योंकि उसके बिना मोक्षमार्ग में प्रवेश ही नहीं है । इस कारण से भेद ज्ञान कराने को, आध्यात्मिक शास्त्र उसे 'स्वतत्त्व' या 'स्वभाव' रूप आत्मा मानते हैं और बाकी के जो आत्मा के समस्त भाव हैं, उनका आत्मा में 'निषेध' करते हैं। उसे ही ‘नेति-नेति' रूप कहा जाता है अर्थात् निश्चय नय रूप निषेध रूप से भी कहा जाता है। इसलिये ही समयसार अथवा नियमसार जैसे आध्यात्मिक शास्त्रों का प्राण - हार्द मात्र यह शुद्धात्मा ही है क्योंकि वे शास्त्र, भेद ज्ञान के शास्त्र हैं जिससे मुमुक्षु जीव अपने विभाव भाव से भेद ज्ञान करके 'शुद्धात्मा' का अनुभव करे और सम्यग्दर्शन की प्राप्ति करके मोक्षमार्ग में आगे बढ़कर परम्परा से मुक्त हो, यही इन शास्त्रों का एकमात्र उद्देश्य है। इसलिये इन शास्त्रों को इसी उद्देश्य से अर्थात् इस अपेक्षा से समझना अत्यन्त आवश्यक है, न कि एकान्त से। प्राय: बड़ा वर्ग इस उद्देश्य को नहीं समझ पाने से ऐसे उत्तम शास्त्रों से दूर ही रहता है और दूसरा वर्ग इसे एकान्त रूप से ग्रहण करके स्वच्छन्दता रूप परिणमते हैं, परन्तु ऐसे शास्त्रों को सम्यक् रूप से समझकर प्ररूपणा करनेवाले तो बहुत ही कम लोग हैं। इन शास्त्रों को पढ़कर लोग ऐसा कहने लगते हैं कि मुझमें तो राग है ही नहीं, मैं राग करता ही नहीं, इत्यादि और वे उस के उद्देश्य रूप भेद ज्ञान न करके, उस का ही आधार लेकर स्वच्छन्दता से राग-द्वेष रूप ही परिणमते हैं और वह भी किंचित् भी अफ़सोस बिना। इस से बड़ा करुणा योग्य क्या होगा? अर्थात् इस से बड़ा पतन क्या होगा ? यह महापतन ही है। क्योंकि जो शास्त्र भेद ज्ञान करके मुक्त होने के लिये है, उसे लोग एकान्त से शब्दश: समझकर - जानकर स्वच्छन्दता से परिणमकर, अपने अनन्त संसार का कारण बनते हैं। और मानते हैं कि हम सब कुछ ही समझ गये, हम अन्य से ऊँचे/बड़े हैं क्योंकि अन्य को तो इस बात की खबर ही नहीं है कि आत्मा राग नहीं करता, आत्मा में राग है ही नहीं इत्यादि; यह है स्वच्छन्दता से शब्दों को पकड़कर एकान्त रूप परिणमन कि जो समयसार अथवा नियमसार जैसे शास्त्रों का प्रयोजन ही नहीं है। अपितु राग, वह आत्मा में जाने
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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