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समयसार के अनुसार सम्यग्दर्शन का विषय
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समयसार के अनुसार सम्यग्दर्शन का विषय श्री समयसार गाथा २ : गाथार्थ :- 'हे भव्य ! जो जीव दर्शन-ज्ञान-चारित्र में स्थित है, उसे निश्चय से स्व-समय जान (अर्थात् जो दर्शन-ज्ञान-चारित्र और अनन्त गुणों के सहज परिणमन रूप परम पारिणामिक भाव में ही 'मैंपन' स्थापित करके उस में ही स्थित हआ है उसे स्व-समय अर्थात् सम्यग्दृष्टि जान); और जो जीव पुद्गल कर्मों के प्रदेशों में स्थित है उसे पर-समय (अर्थात् जो विभाव भाव सहित के जीव में 'मैंपन' करते हैं उन्हें मिथ्यात्वी जीव) जान।'
यहाँ सम्यग्दर्शन का विषय (दृष्टि का विषय) बताया है, दर्पण के दृष्टान्त से समझें। जैसे दर्पण के स्वच्छत्व रूप परिणमन में जो 'मैंपन' करता है वह स्व-समय, अर्थात् प्रतिबिम्ब को गौण करके मात्र दर्पण को जानना - जैसे कि आत्मा के सहज परिणमन रूप परम पारिणामिक भाव = ज्ञान सामान्य भाव = निष्क्रिय भाव में प्रतिबिम्ब रूप से बाक़ी के चार भाव रहे हुए हैं तो उन चार भावों को गौण करके मात्र स्वच्छत्व रूप परम पारिणामिक भाव = स्व-समय में ही 'मैंपन' करना।
ऐसा किस प्रकार किया जा सकता है? तो उसकी विधि आचार्य भगवन्त ने गाथा ११ में बतलायी है कि कतक फल (फिटकरी) रूप बुद्धि से ऐसा हो सकता है। गाथा २९४ में प्रज्ञा छैनी द्वारा यही प्रक्रिया करने को बतलाया है। यहाँ समझना यह है कि पर्याय रहित का द्रव्य अर्थात् आत्मा के चार भावों को गौण करके = रहित करके पंचम भाव रूप द्रव्य की प्राप्ति जो कि कतक फल (फिटकरी) रूप बुद्धि से अथवा प्रज्ञा रूपी छैनी से ही हो सकती है, अन्यथा नहीं। आचार्य भगवन्त ने किसी भौतिक छैनी से या कपड़े का उदाहरण देकर कैंची से जीव में भेद ज्ञान करने को नहीं कहा है क्योंकि जीव एक अभेद-अखण्ड-ज्ञान घन रूप द्रव्य है। इसलिये वह पर्याय रहित का द्रव्य प्राप्त करने के लिये प्रज्ञा छैनी रूप बुद्धि से चार भाव को गौण करके शेष रहे हुए एक भाव जो कि परम पारिणामिक भाव रूप है जो कि सदा ऐसा का ऐसा ही उपजता है, उस में मैंपन' करने को कहा है, उसे ही ‘स्व-समय' कहा है कि जिस में 'मैंपन' करने से ही सम्यग्दर्शन प्रगट होता है और साथ में सम्यक्ज्ञान रूप से उसी 'स्व-समय' का अनुभव होता है, जिसे आचार्य भगवन्तों ने आत्मा की अनुभूति बतलाया है।
गाथा २ : टीका : आचार्य भगवन्त टीका में बतलाते हैं कि :- ....यह जीव पदार्थ