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________________ 176 सम्यग्दर्शन की विधि गाथा २० : अर्थ :- 'योगी-ध्यानी-मुनि जिनवर भगवान के मत से शुद्धात्मा को ध्यान में ध्याते हैं (अर्थात् एकमात्र शुद्धात्मा का ही ध्यान करने योग्य है, वही उत्तम है और उसके ध्यान से ही व्यक्ति योगी कहलाते हैं), इसलिये वे निर्वाण को प्राप्त करते हैं, तो उस से क्या स्वर्गलोक प्राप्त नहीं हो सकता? अवश्य ही प्राप्त हो सकता है।' अर्थात् अनेक लोग स्वर्ग की प्राप्ति के लिये नाना प्रकार के उपाय करते देखने में आते हैं तो उस उपाय से तो कदाचित् क्षणिक स्वर्ग प्राप्त हो भी अथवा न भी हो, परन्तु परम्परा में तो उसे अनन्त संसार ही मिलता है; जबकि शुद्धात्मा का अनुभव और ध्यान से मुक्ति मिलती है और मुक्ति न मिले तब तक स्वर्ग और स्वर्ग जैसा ही सुख होता है, इसलिये सभी को उसी का ध्यान करने योग्य है जो कि मुक्ति का मार्ग है और उस मार्ग में स्वर्ग तो सहज ही होता है, उस की याचना नहीं होती ऐसा बतलाया है। गाथा ६६ : अन्वयार्थ :- ‘जब तक मनुष्य इन्द्रियों के विषयों में अपने मन को जोड़े रखता है (अर्थात् मन में इन्द्रियों के विषयों के प्रति आदर भाव वर्तता है), तब तक आत्मा को नहीं जानता (क्योंकि उसका लक्ष्य विषय है, आत्मा नहीं; इसलिये ही पूर्व में हम ने कहा था कि 'मुझे क्या रुचता है?' यह मुमुक्षु जीव को देखते रहना चाहिये और उससे अपनी योग्यता की खोज करते रहना चाहिये और यदि योग्यता न हो तो उसका पुरुषार्थ करना आवश्यक है) इसलिये विषयों से विरक्त चित्तवाले योगी-ध्यानी-मुनि ही आत्मा को जानते हैं।' इस गाथा में आत्म प्राप्ति के लिये योग्यता बतलायी है। ‘शीलपाहुड' गाथा ४ : अर्थ :- 'जब तक यह जीव विषय बल अर्थात् विषयों के वश रहता है, तब तक ज्ञान को नहीं जानता और ज्ञान को जाने बिना केवल विषयों से विरक्त होने मात्र से ही पहले बाँधे हुए कर्मों का नाश नहीं होता।' अर्थात् विषय विरक्ति वह कोई ध्येय नहीं परन्तु सम्यग्दर्शन जो कि ध्येय है, उसके लिये आवश्यक योग्यता है और वह भी एकमात्र आत्म लक्ष्य से ही होना चाहिये ताकि उस से आगे आत्म ज्ञान होते ही, अपूर्व निर्जरा हो सके। परन्तु आत्म ज्ञान के लक्ष्य रहित की मात्र विषय विरक्ति कर्म नष्ट करने में कार्यकारी नहीं है, ऐसा बतलाया है, अर्थात् मुमुक्षु जीवों को एकमात्र आत्म लक्ष्य से विषय विरक्ति करना अत्यन्त आवश्यक है।
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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