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________________ अट्ठपाहुड की गाथायें 175 मोक्षेच्छुकों को पूर्व में हमने देखा वैसा एकमात्र आत्मा के लक्ष्य से ही शुभ में रहना और अशुभ का त्याग करना, ऐसा है विवेक। अर्थात् पाप का तो त्याग; और एकमात्र आत्म प्राप्ति के लक्ष्य से जो भाव हो वह नियम से शुभ ही हो, ऐसी है सहज व्यवस्था, परन्तु जो कोई इससे विपरीत ग्रहण करे तो उसके तो अब बाद के भवों का भी ठिकाना नहीं रहेगा और जिन धर्म इत्यादि उत्तम संयोग भी प्राप्त होने दर्लभ हो जायेंगे। इसलिये शास्त्र में से छल ग्रहण नहीं करना चाहिये, अन्यथा अनन्त संसार-भ्रमण ही प्राप्त होगा जो कि अनन्त दुःख का कारण है। 'मोक्षपाहड' गाथा ९ : अर्थ :- “मिथ्या दृष्टि पुरुष अपनी देह के समान दसरे की देह को देखकर, यह देह अचेतन है तो भी, मिथ्या भाव से आत्म भाव द्वारा बहुत प्रयत्न से, उसे पर की आत्मा ही मानता है, अर्थात् समझता है।' मिथ्यात्वी जीव इसी प्रकार से देह भाव पुष्ट करता है। यदि वह साक्षात समोसरण में भी जाये तो भगवान की देह को ही आत्मा मान कर अथवा यदि वह मन्दिर में जाये तो भगवान की मूर्ति रूप देह को ही आत्मा मानता है और पूजता है और ऐसा करके वह अपना देहाध्यास ही पक्का करता है अर्थात् देहाध्यास ही दृढ़ करता है। गाथा १८ : अर्थ :- 'संसार के द:ख देनेवाले ज्ञानावर्णादिक दष्ट आठ कर्मों से रहित है (अर्थात् जो सम्यग्दर्शन के विषय रूप शुद्धात्मा है, उसमें द्रव्य दृष्टि से सर्व विभाव भाव अस्त हुआ है अर्थात् अत्यन्त गौण हो गया है, इसलिये वह दुष्ट आठ कर्मों से रहित कहा है।) जिसे किसी की उपमा नहीं दी जा सकती, ऐसा अनुपम है, जिसका ज्ञान वही शरीर है (अर्थात् जो सामान्य ज्ञान मात्र भाव है, वह ही, परम पारिणामिक भाव रूप शुद्धात्मा है वह ही), जिसका नाश नहीं होता ऐसा अविनाशी - नित्य है और शुद्ध अर्थात् विकार रहित है, वह केवल ज्ञानमयी आत्मा (अर्थात् सर्व गुणों के सहज परिणमन रूप परम पारिणामिक भाव कि जिसे शुद्धात्मा भी कहा जाता है, उसके सर्व गुण शुद्ध ही परिणमते हैं, इस अपेक्षा से केवल ज्ञानमयी कहा है और दूसरे ऊपर बतलाये अनुसार जिसका ज्ञान ही शरीर है अर्थात् वह ज्ञान मात्र भाव होने से उसे केवल ज्ञानमयी कहा है) जिन भगवान सर्वज्ञ ने कहा है, वही स्वद्रव्य (अर्थात् वही मेरा स्व है और उसमें ही मेरा मैंपन/एकत्व करने योग्य है, इस अपेक्षा से उसे स्वद्रव्य कहा) है।' यह परम पारिणामिक भाव रूप शुद्धात्मा ही उपादेय है और उसमें ही 'मैंपन' करने से स्वात्मानुभूति रूप सम्यग्दर्शन प्रगट होता है, ऐसा इस गाथा में बतलाया है। दूसरे, कई लोग यहाँ बताये गये स्वभाव के लक्षण जैसे कि ज्ञानावर्णादिक आठ कर्मों से रहित या केवल ज्ञानमयी को शब्दश: पकड़कर और नयों से अपरिचित होने के कारण या तो नयों के पक्षवाले होने के कारण इसे समझ नहीं पाते।
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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