SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 180
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 174 सम्यग्दर्शन की विधि ३४ अट्ठपाहड की गाथायें अब हम अट्ठपाहुड शास्त्र की थोड़ी सी गाथायें देखेंगे ‘दर्शनपाहुड’ गाथा ८ : अर्थ :- 'जो पुरुष दर्शन में भ्रष्ट है (अर्थात् मिथ्यात्वी है) तथा ज्ञान चारित्र में भी भ्रष्ट है, वे पुरुष भ्रष्ट में भी विशेष (अति) भ्रष्ट हैं। कोई दर्शन सहित है परन्तु ज्ञान-चारित्र उन्हें नहीं होता, तथा कोई अन्तरंग दर्शन से भ्रष्ट है तो भी ज्ञान - चारित्र का भली भाँति पालन करते हैं (यहाँ ज्ञान अर्थात् जिनागम का क्षयोपशम ज्ञान लेना) और जो दर्शन -ज्ञानचारित्र इन तीनों से भ्रष्ट हैं, वे तो अत्यन्त भ्रष्ट हैं। वे स्वयं तो भ्रष्ट हैं परन्तु बाकी के अर्थात् अपने अतिरिक्त अन्य जनों को भी भ्रष्ट करते हैं। ' - इस गाथा से स्पष्ट होता है कि जिन सिद्धान्त में अनेकान्त प्रवर्तता है अर्थात् जिन सिद्धान्त में प्रत्येक कथन अपेक्षा से ही होता है और इसलिये कोई स्वच्छन्दता से ऐसा कहे कि सम्यग्दर्शन के अतिरिक्त अभ्यासार्थ और पाप से बचने के लिये भी अहिंसादि व्रत-तप नहीं होते, उन्हें यहाँ भ्रष्ट से भी अतिभ्रष्ट कहा है और अन्यों को भी वे भ्रष्ट रूप प्रवर्तन करानेवाले कहे हैं। अर्थात् इस काल में सम्यग्दर्शन अति दुर्लभ होने के कारण, यदि कोई मिथ्यात्वी जीव (अर्थात् दर्शन विहीन जीव अथवा दर्शन भ्रष्ट जीव) ज्ञान अथवा चारित्र की आराधना करे, तो उस में कुछ भी ग़लत नहीं है, मात्र वह ज्ञान और चारित्र उसे मुक्ति दिलाने में शक्तिमान नहीं होने से और गुणस्थानक अनुसार नहीं होने से, वे उसे मात्र अभ्यास रूप और शुभ भाव रूप ही हैं, परन्तु उन की कोई मनाही नहीं है, अपितु उन के लिये यहाँ प्रोत्साहन दिया है। इसलिये सभी को जिन सिद्धान्त सभी अपेक्षाओं से समझना अत्यन्त आवश्यक है, न कि एकान्त से, क्योंकि एकान्त अनेकों के परम अहित का कारण होने में सक्षम है। ‘भावपाहुड’ गाथा ८६ : अर्थ :- 'अथवा जो पुरुष आत्मा का इष्ट नहीं करता (अर्थात् जिसका लक्ष्य आत्म प्राप्ति नहीं) उसका स्वरूप जानता नहीं (अर्थात् आत्म स्वरूप वस्तु व्यवस्था का सत्य ज्ञान नहीं), उसे अंगीकार नहीं करता (अर्थात् आत्मा का अनुभव नहीं करने से मिथ्यात्वी है) और सर्व प्रकार के समस्त पुण्य करता है तो भी सिद्धि (मोक्ष) प्राप्त नहीं करता परन्तु वह पुरुष संसार में ही भ्रमण करता है। ' अर्थात् जिसका लक्ष्य आत्म प्राप्ति नहीं, ऐसा जीव सर्व प्रकार के समस्त पुण्य करता है तो भी सिद्धि (मोक्ष) प्राप्त नहीं करता परन्तु वह पुरुष संसार में ही भ्रमण करता है इसलिये सभी
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy