________________
पंचास्तिकाय संग्रह की गाथायें
173
पंचास्तिकाय संग्रह की गाथायें अब हम श्री पंचास्तिकाय संग्रह शास्त्र की थोड़ी सी गाथायें देखेंगे
गाथा १६५ : अन्वयार्थ :- ‘शुद्ध सम्प्रयोग से (शुद्ध एसे परम पारिणामिक भाव के प्रति भक्तिभाव से) दु:ख मोक्ष होता है ऐसा यदि अज्ञान के कारण ज्ञानी (अर्थात् सम्यग्दर्शन रहित क्षयोपशम ज्ञानी) माने, तो वह पर-समय रत जीव है।' 'अरिहन्त आदि के प्रति भक्ति-अनुरागवाली मन्द शुद्धि से क्रम से मोक्ष होता है' ऐसा यदि अज्ञान के कारण (शुद्धात्म संवेदन के अभाव के कारण, रागांश के कारण) ज्ञानी को (अर्थात् क्षयोपशम ज्ञानी को) भी मन्द पुरुषार्थवाला झुकाव वर्ते, तो वहाँ तक वह भी सूक्ष्म पर-समय रत है।' अर्थात् शुभ भाव रूप जिनभक्ति से मुक्ति मिलती है, ऐसा जो मानता है वह मिथ्यात्वी है।
गाथा १६६ : अन्वयार्थ :- ‘अरिहन्त, सिद्ध, चैत्य (अरहन्त आदि की प्रतिमा), प्रवचन (शास्त्र), मुनिगण और ज्ञान के प्रति भक्ति सम्पन्न जीव बहुत पुण्य बाँधता है, परन्तु वह वास्तव में कर्म का क्षय नहीं करता।'
अर्थात् मोक्षमार्ग मात्र स्वात्मानुभूति रूप सम्यग्दर्शन के अतिरिक्त मिलता ही नहीं, यही दृढ़ कराना है, इसलिये सभी को सम्यग्दर्शन के लिये ही सारे प्रयत्न करना चाहिये।
गाथा १६९ : अन्वयार्थ :- ‘इसलिये मोक्षार्थी जीव (मुमुक्षु) नि:संग (अर्थात् अपने को शुद्धात्म रूप अनुभव करके, क्योंकि वह भाव त्रिकाल नि:संग है) और निर्मम (सबके प्रति ममता त्याग कर अर्थात् सर्व संयोग भाव में आदर छोड़कर निर्मम) होकर सिद्धों की (अभेद) भक्ति (शुद्ध
आत्म द्रव्य में स्थिरता रूप पारमार्थिक सिद्ध भक्ति) करता है, इसलिये वह निर्वाण को पाता है (अर्थात् मुक्त होता है)।' हम पूर्व में स्पष्ट कर चुके हैं कि शुद्धात्मा की अभेद भक्ति ही मोक्षमार्ग में कार्यकारी है, न कि अन्ध भक्ति अथवा व्यक्ति राग रूप भक्ति।
गाथा १७२ : अन्वयार्थ :- ‘इसलिये मोक्षाभिलाषी जीव (मुमुक्षु) सर्वत्र किंचित् राग न करे; राग न करने से वह भव्य जीव वीतराग होकर भव सागर को तिरता है।' अर्थात् मोक्षाभिलाषी जीव को मत, पन्थ, सम्प्रदाय, व्यक्ति विशेष इत्यादि कहीं भी राग नहीं करना चाहिये।