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सम्यग्दर्शन की विधि
भावों को अत्यन्त गौण करके) तथा उस परम पंचम भाव को जान कर (अर्थात् शुद्धात्मा की अनुभूति कर के) अकेला (अर्थात् शुद्धात्मा की अनुभूति के बाद की साधना आभ्यन्तर होने से अकेला कहा है अथवा इस काल में सम्यग्दर्शन की दुर्लभता दर्शाने के लिये अकेला कहा है), कलियुग में पाप वन में अग्नि रूप मुनिवर रूप से शोभा देता है।' अर्थात् जो बुद्धिमान पुरुष परम पारिणामिक भाव का उग्र रूप से आश्रय करते हैं, वे ही पुरुष पाप वन को जलाने में अग्नि समान मुनिवर हैं। यहाँ पर परम पंचम भाव को निरन्तर स्थायी कहा है अर्थात् अपेक्षा से उसे अपरिणामी कहा जा सकता है, परन्तु उसे एकान्त से अपरिणामी नहीं मानना। ऐसा मानने पर अनर्थ हो जायेगा और अपना संसार परिभ्रमण बढ़ जाएगा।
श्लोक २९९:- ‘आत्मा की आराधना से रहित जीव को सापराध (अपराधी) गिनने में आया है (इसलिये) मैं आनन्द मन्दिर आत्मा को (शुद्धात्मा को) नित्य नमन करता हूँ।' अर्थात् आत्मा के लक्ष्य के अतिरिक्त की सर्व साधना-आराधना अपराधयुक्त कही है, क्योंकि उस का फल अनन्त संसार ही है।
इस प्रकार नियमसार शास्त्र में नियम से कारण समयसार रूप निज शुद्धात्मा जो कि परम पारिणामिक भाव रूप अर्थात् सहज परिणमन रूप है, उसे ही जानने को, उस में ही 'मैंपन' करने को, उसे ही भजने को और उस में ही स्थिरता करने को कहा है। यही मोक्षमार्ग का निश्चित नियम अर्थात् क्रम है, इसलिये इसे निश्चित नियम का सार अर्थात् नियमसार कहा है।