SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 172
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 166 सम्यग्दर्शन की विधि में लीन रहकर पर के वश नहीं होने से) दुरित रूपी (दुष्कर्म रूपी) तिमिर पुंज का जिसने नाश किया है (अर्थात् वह किसी भी प्रकार के पाप आचरता नहीं ऐसा अर्थात् भाव मुनि) ऐसे उस योगी को सदा प्रकाशमान ज्योति द्वारा (अर्थात् परम पारिणामिक भाव स्वरूप कारण समयसार रूप सदा प्रकाशमान ज्योति द्वारा) सहज अवस्था (अर्थात् कार्य समयसार रूपी मुक्ति) प्रगट होने से अमूर्तपना (सिद्धत्व की प्राप्ति) होता है।' श्लोक २४१ :- ‘कलि काल में (अर्थात् वर्तमान हुण्डावसर्पिणी पंचम काल में) भी कहींकोई भाग्यशाली जीव मिथ्यात्वादि रूप मल कादव से रहित (अर्थात् सम्यग्दर्शन सहित) और सद्धर्म रक्षामणि ऐसा समर्थ मुनि होता है। जिसने अनेक परिग्रहों का विस्तार छोड़ा है और जो पाप रूपी अटवी को जलानेवाली अग्नि है, ऐसा मुनि इस काल में भूतल में (पृथ्वी पर) तथा देवलोक में देवों द्वारा भी भली प्रकार पूज्य है।' अर्थात् ऐसे समर्थ मुनि कोई विरले ही होते हैं जो कि अत्यन्त आदर के पात्र हैं। श्लोक २४२ :- ‘इस लोक में तपश्चर्या समस्त सुबुद्धियों को प्राणप्यारी है; वह योग्य तपश्चर्या (मात्र आत्म लक्ष्य से और मुक्ति के लक्ष्य से) इन्द्रों को भी सतत वन्दनीय है। उसे पाकर जो कोई जीव कामान्धकारयुक्त संसार से जनित सुख में रमता है, वह जड़ मति है। अरे रे! कलि से हना हुआ है।' अर्थात् चारित्र अथवा तपश्चर्या अंगीकार करने के बाद भी यदि किसी जीव को काम-भोग के प्रति आदर जीवन्त रहता है तो वैसे जीव को जड़ मति कहा है अर्थात् वैसा जीव अपना अनन्त संसार जीवन्त रखनेवाला है। श्लोक २४३ :- 'जो जीव अन्य के वश (अर्थात् सम्यग्दर्शन रहित) है वह भले मुनिवेशधारी हो तथापि संसारी है, नित्य दुःख का भोगनेवाला है; जो जीव स्ववश (अर्थात् सम्यग्दर्शन सहित) है वह जीवन्मुक्त है, जिनेश्वर से किंचित् न्यून है।' सम्यग्दर्शन सहित मुनि में जिनेश्वरदेव की अपेक्षा ज़रा सी ही हीनता है यानि वैसे मुनि शीघ्र ही जिनत्व प्राप्त करने योग्य हैं और सम्यग्दर्शन रहित मुनिवेशधारियों को भी सर्वप्रथम में प्रथम सम्यग्दर्शन प्राप्त करने योग्य है क्योंकि उस के बिना मोक्षमार्ग शुरु ही नहीं होता-ऐसा उपदेश भी दीया है। श्लोक २४४:- ‘ऐसा होने से ही जिननाथ के मार्ग में मुनि वर्ग में स्ववश मुनि (अर्थात् सम्यग्दर्शन सहित समताधारी मुनि) सदा शोभता है; और अन्य के वश मुनि नौकर के समूह में राजवल्लभ नौकर के समान शोभता है।' अर्थात् सम्यग्दर्शन रहित मुनि सभी संसारीजन रूप नौकरों में राजवल्लभ यानि ऊँची पदवीवाले
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy