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________________ नियमसार के अनुसार सम्यग्दर्शन और ध्यान का विषय 165 इत्यादि का त्याग) करके जो जैन कथित तत्त्वों में आत्मा को जोड़ता है, उसका निज भाव (अर्थात् शुद्धात्मानुभूति) योग है।' गाथा १४० : अन्वयार्थ :- ‘वृषभादि जिनवरेन्द्र इस प्रकार योग की उत्तम भक्ति करके निवृत्ति सुख को प्राप्त हुए; इसलिये योग की (ऐसी) उत्तम भक्ति को तूधारण कर (न कि अन्ध भक्ति अथवा व्यक्ति राग रूप भक्ति को)।' श्लोक २३३ :- ‘अपुनर्भव सुख की (मुक्ति सुख की) सिद्धि के लिये मैं शुद्ध योग की (अर्थात् शुद्धात्मा में 'मैंपन' करनेवाले योग की) उत्तम भक्ति करता हूँ (अर्थात् उसे ही बारम्बार भाता हूँ), संसार की घोर भीति से सर्व जीव नित्य यह उत्तम भक्ति करें।' अर्थात् सब को उसी शुद्ध योग की भक्ति की ही प्रेरणा देते है, न कि चापलूसीवाली भक्ति की अथवा व्यक्ति राग रूप भक्ति की। गाथा १४१ : अन्वयार्थ :- ‘जो अन्य के वश नहीं (अर्थात् जो पूर्ण भेद ज्ञान करके मात्र शुद्धात्मा में ही मैंपन' करता है और इस कारण से वह जिन कुछ कर्मों का उदय होता है अर्थात् उदय आता है, उन्हें समता भाव से भोगता है अर्थात् उसमें अच्छा-बुरा अर्थात् इष्ट-अनिष्ट बुद्धि नहीं करता, इसलिये वह अन्य के वश नहीं है) उसे (निश्चय परम) आवश्यक कर्म कहते हैं (अर्थात् उस जीव को आवश्यक कर्म है ऐसा परम योगीश्वर कहते हैं)। (ऐसा) कर्म का विनाश करनेवाला योग (अर्थात् ऐसा जो यह आवश्यक कार्य) वह निर्वाण का मार्ग है ऐसा कहा है।' श्लोक २३८ :- ‘स्ववशता से उत्पन्न आवश्यक कर्म स्वरूप यह साक्षात् धर्म नियम से (निश्चित रूप से) सच्चिदानन्दमूर्ति आत्मा में (सत्-चित्-आनन्द स्वरूप आत्मा में अर्थात् परम पारिणामिक भाव रूप आत्मा में) अतिशय रूप से होता है। वह यह (आत्मस्थित धर्म), कर्म क्षय करने में कुशल है। ऐसा निर्वाण का एक मार्ग है। उस से ही मैं (अर्थात् उसमें ही 'मैंपन' करके मैं) शीघ्र कोई (अद्भुत) निर्विकल्प सुख को प्राप्त करता हूँ।' अर्थात् स्वात्मानुभूति में अद्भुत-अतीन्द्रिय निर्विकल्प आनन्द ही होता है, उसे मैं प्राप्त करता हूँ। श्लोक २३९ :- 'कोई योगी स्वहित में लीन रहता हआ शुद्ध जीवास्तिकाय (अर्थात् पूर्ण जीव जो कि प्रमाण का विषय है, उसमें से विभाव भाव अर्थात् पर लक्ष्य से/कर्म के लक्ष्य से होनेवाले भावों को गौण करते ही, अर्थात् उस जीव को द्रव्य दृष्टि से निहारते ही वह परम पारिणामिक भाव रूप शुद्ध जीवास्तिकाय प्राप्त होता है, वह अपने) अतिरिक्त अन्य पदार्थों के वश नहीं होता, ऐसा जो सुस्थित रहना, वह निरुक्ति (अर्थात् अवशपने का व्युत्पत्ति अर्थ) है, ऐसा करने से (अर्थात् अपने
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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