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________________ नियमसार के अनुसार सम्यग्दर्शन और ध्यान का विषय 167 नौकर की तरह शोभता है, उससे अधिक नहीं। वैसा मुनि भी ऊँची पदवीवाला संसारी ही है ऐसा बतलाकर सम्यग्दर्शन की ही महिमा समझायी है जो कि एकमात्र सभी जीवों का कर्तव्य है। श्लोक २४५ :- ‘मुनिवर देवलोकादि के क्लेश के प्रति रति तजो और निर्वाण के कारण का कारण (अर्थात् निर्वाण का कारण रूप निश्चयचारित्र का कारण, ऐसे सम्यग्दर्शन का विषय) ऐसे सहज परमात्मा को भजो (अर्थात् जो सम्यग्दर्शन का विषय है, ऐसा परम पारिणामिक भाव जो कि आत्मा का सहज परिणमन है और इसलिये ही उसे सहज परमात्म रूप कहा जाता है, कि उसमें 'मैंपन' करने पर सम्यग्दर्शन प्रगट होता है जो कि निश्चय चारित्र का कारण है, इसलिये इस सम्यग्दर्शन के विषय को निर्वाण के कारण का कारण कहा गया है) जो कि सहज परमात्मा परमानन्दमय है, सर्वथा (अर्थात् तीनों काल - एकान्त से) निर्मल ज्ञान का आवास है, निरावरण स्वरूप है और नयअनय के समूह से (सुनय और कुनयों के समूह से अर्थात् विकल्प मात्र से) दूर (अर्थात् निर्विकल्प) है।' गाथा १४५ : अन्वयार्थ :- ‘जो द्रव्य-गुण-पर्यायों में (अर्थात् उनके विकल्पों में) मन जोड़ता है, वह भी अन्य वश है; मोहान्धकार रहित श्रमण ऐसा कहते हैं।' ऊपर बतलाये अनुसार जो निर्विकल्प शुद्धात्मा है, उसमें ही उपयोग लगाने योग्य है, अन्यथा नहीं। इस अपेक्षा से भेद रूप व्यवहार हेय है, उसका उपयोग वस्तु का स्वरूप समझने के लिये ही है - जैसे कि द्रव्य-गुण-पर्याय अथवा उत्पाद-व्यय-ध्रुव और अनन्त गुण इत्यादि; परन्तु वे सर्व भेद विकल्प रूप होने से और वस्तु का स्वरूप अभेद होने से, भेद रूप व्यवहार से वस्तु जैसी है वैसी समझकर भेद में न रहकर, अभेद में ही रमने योग्य है। प्रश्न :- यहाँ किसी के मन में विकल्प हो कि दृष्टि का विषय तो पर्याय से रहित द्रव्य है न? तो? उत्तर :- ऐसा विकल्प करने से वहाँ द्वैत का जन्म होता है अर्थात् एक अभेद द्रव्य में द्रव्य और पर्याय रूप द्वैत का जन्म होने से, अभेद का अनुभव नहीं होता; अर्थात् दृष्टि का विषय अभेद, शुद्ध द्रव्यार्थिक नय से 'शुद्धात्मा' है और शुद्ध द्रव्यार्थिक नय में पर्याय अत्यन्त गौण हो जाने से ज्ञात ही नहीं होती। अथवा उसका विकल्प भी नहीं आता इसलिये अभेद रूप शुद्धात्मा का अनुभव हो जाता है कि जिस में विभाव पर्याय अत्यन्त गौण है। यही विधि है निर्विकल्प सम्यग्दर्शन की अर्थात् उस में द्रव्य को पर्याय रहित प्राप्त करने का अथवा किसी भी विभाव भाव के निषेध का विकल्प न करके, मात्र दृष्टि के विषय रूप 'शुद्धात्मा' को ही शुद्ध द्रव्यार्थिक नय से ग्रहण करने पर अन्य सर्व अपने आप ही अत्यन्त गौण हो जाते हैं। परन्तु जो ऐसा न करके निषेध का ही आग्रह रखते हैं, वे मात्र निषेध रूप विकल्प में
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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