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________________ सम्यग्दर्शन की विधि श्लोक २२७:- ‘इस अविचलित-महाशुद्ध-रत्नत्रयवाले मुक्ति के हेतुभूत निरुपम - सहजज्ञानदर्शनचारित्र रूप (अर्थात् ज्ञान-दर्शन - चारित्र इत्यादि अनन्त गुणों का सहज परिणमन रूप परम पारिणामिक भाव रूप शुद्धात्मा), नित्य आत्मा में (अर्थात् शुद्धात्मा जो कि नित्य शुद्ध रूप वैसा का वैसा ही उपजता है अर्थात् परिणमता है ऐसे नित्य आत्मा में) आत्मा को वास्तव में सम्यक् प्रकार से स्थापित करके (अर्थात् उसका ही अनुभव करके और उसका ही ध्यान धर कर) यह आत्मा चैतन्य चमत्कार की (सामान्य चेतना रूप परम पारिणामिक भाव की) भक्ति द्वारा निरतिशय (अजोड़) घर को, जिसमें से विपदायें दूर हो गयी हैं और जो आनन्द से भव्य है प्राप्त करता है अर्थात् सिद्धि रूपी स्त्री का स्वामी होता है।' शुद्धात्मा के ध्यान से ही अरिहन्त होता है और फिर सिद्ध होकर मुक्त होता है। 164 गाथा १३७टीका का श्लोक : - 'आत्म प्रयत्न सापेक्ष विशिष्ट जो मनोगति (अर्थात् नोइन्द्रिय रूप मन द्वारा जो, आत्मा को स्वानुभव होता है वह), उसका ब्रह्म में संयोग होना (अर्थात् स्वात्मानुभूति होती है अर्थात् शुद्धात्मा में = ब्रह्म में 'मैंपन ' = सोऽहं करते ही सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है), उसे योग कहा जाता है।' जैन सिद्धान्त के अनुसार योग की यह व्याख्या है और यही योग आत्मा के लिये हितकर है, जबकि अन्य प्रकार के योग, मात्र विकल्प रूप आर्त ध्यान के कारण होने से सेवन योग्य नहीं हैं। अब आगे योग भक्तिवाले जीव की व्याख्या करते हैं, वही भक्ति का स्वरूप भी है। श्लोक २२८ :- ‘जो आत्मा खुद को अपने साथ निरन्तर जोड़ती है (अर्थात् एकमात्र शुद्धात्मा का ही ध्यान करती है, अनुभव करती है), वह मुनीश्वर निश्चय से योग भक्तिवाला है। ' गाथा १३८ : अन्वयार्थ :- 'जो साधु सभी विकल्पों के अभाव में (अर्थात् निर्विकल्प स्वरूप परम पारिणामिकभाव में) आत्मा को जोड़ता है (अर्थात् उसमें ही 'मैंपन' करता है), वह योग भक्तिवाला है; दूसरे को योग किस प्रकार हो सकता है ?' अर्थात् ऐसे स्वात्मानुभूति रूप योग के अतिरिक्त दूसरे को योग माना ही नहीं अर्थात् दूसरा कोई योग कार्यकारी नहीं। श्लोक २२९ :- ‘भेद का अभाव होने पर (अर्थात् अभेद भाव से शुद्धात्मा को भाने पर अर्थात् अनुभव करने पर) श्रेष्ठ योग भक्ति होती है; उसके द्वारा योगियों को आत्म लब्धि रूप ऐसी वह (प्रसिद्ध) मुक्ति होती है।' अर्थात् ऐसा ही योग मुक्ति का कारण है और इसलिये अभेद भाव से शुद्धात्मा ही भाने योग्य है, अन्य कोई नहीं । गाथा १३९ : अन्वयार्थ ‘विपरीत अभिनिवेश का परित्याग ( अर्थात् मताग्रह, हठाग्रह :
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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