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________________ नियमसार के अनुसार सम्यग्दर्शन और ध्यान का विषय 161 के लिये प्रयोग करता है और निज आत्म कार्य में मूढ़ है अर्थात् पुरुषार्थहीन है)। मोह के अभाव से वह ज्ञान ज्योति शुद्ध भाव को पाता है (अर्थात् परम पारिणामिक भाव के अनुभवन और सेवन से श्रेणी चढ़कर मोह का अभाव करके ज्ञान ज्योति अर्थात् सम्यग्दृष्टि आत्मा, केवल ज्ञान-केवल दर्शन रूप शुद्ध भाव को प्राप्त करता है) जिस शुद्ध भाव ने दिशा मण्डल को उज्ज्वल किया है (अर्थात् उससे तीन काल-तीन लोक सहज ज्ञात होते हैं) और सहज अवस्था को प्रगट किया है (अर्थात् सर्व गुणों की साक्षात् शुद्ध दशा प्रगट की है)।' यही विधि है सिद्धत्व की प्राप्ति की। श्लोक १६७ :- ‘शुभ और अशुभ से रहित शुद्ध चैतन्य की भावना (अर्थात् विभाव भाव रहित शुद्धात्मा अर्थात् परम पारिणामिक भाव की ही भावना कि जो भाव श्री समयसार गाथा ६ में कहे अनुसार प्रमत्त भी नहीं और अप्रमत्त भी नहीं मात्र एक ज्ञायक भाव है, यह भावना) मेरे अनादि संसार रोग की उत्तम औषधि है।' अर्थात् जो निर्विकल्प आत्म स्वरूप है अर्थात् शुद्धात्मा है, वही सम्यग्दर्शन का विषय (दृष्टि का विषय) है और सम्यग्दृष्टि को आगे की साधना में वही ध्यान का भी विषय है। श्लोक १७० :- 'जिसने सहज तेज से (अर्थात् सहज परिणमन रूप परम पारिणामिक भाव रूप शुद्धात्मा को भाने से) राग रूपी अन्धकार का नाश किया है (अर्थात् राग रूपी विभाव भाव का जिसके भाने से नाश हआ है अर्थात् जिसके कारण वीतरागता आयी है), जो मुनिवरों के मन में बसता है (अर्थात् मुनिवर उसका ही ध्यान करते हैं और उसे ही सेवन करते हैं अर्थात् उसमें ही अधिक से अधिक स्थिरता करने का पुरुषार्थ करते हैं), जो शुद्ध-शुद्ध (जो अनादि-अनन्त शुद्ध) है, जो विषय सुख में रत जीवों को सर्वदा दर्लभ है (अर्थात् मुमुक्षु जीव को समस्त विषय-कषाय के प्रति आदर छोड़ देना आवश्यक है अर्थात् अत्यन्त आवश्यकता के सिवाय उनका ज़रा भी सेवन न करने से उनके प्रति आदर निकल जाता है; उसकी परीक्षा के लिये 'मुझे क्या रुचता है?' ऐसा प्रश्न अपने को पूछ कर उसका उत्तर खोजना और यदि उत्तर में संसार अथवा संसार के सुखों के प्रति आकर्षण/आदर भाव हो तो समझना कि मुझे अभी विषय-कषाय का आदर है, संसार का आदर है जो कि छोड़ने योग्य है, क्योंकि वह अनन्त परावर्तन कराने में सक्षम है), (शुद्धात्मा) जो परम सुख का समुद्र है, जो शुद्ध ज्ञान है (अर्थात वह ज्ञान सामान्य मात्र है) और जिसने निद्रा का नाश किया है (अर्थात् इस शुद्धात्मा को भाने से जिन्होंने केवल ज्ञान-केवल दर्शन प्राप्त किया है उन्होंने इस भावना के बल से ही निद्रा का नाश किया है) वह यह (शुद्धात्मा) जयवन्त है (अर्थात् वह शुद्धात्मा ही सर्वस्व है)।
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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