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सम्यग्दर्शन की विधि
श्लोक १९० :- 'जिसने नित्य ज्योति (अनादि-अनन्त शुद्ध भाव रूप परम पारिणामिक भाव) द्वारा तिमिर पुंज का नाश किया है, जो आदि-अन्त रहित है (अर्थात् तीनों काल शुद्ध ही है), जो परम कला सहित है और जो आनन्द मूर्ति है ऐसी एक शुद्ध आत्मा को जो जीव शुद्ध आत्मा में अविचल मनवाला होकर निरन्तर ध्याता है (अर्थात् उसका ही ध्यान करता है), वह यह आचारवान (चारित्रवान) जीव शीघ्र बन्धनमुक्त होता है।'
श्लोक १९३ :- ‘यह ध्यान है, यह ध्येय है, यह ध्याता है और वह फल है - ऐसे विकल्प जालों से जो मुक्त है (अर्थात् जो निर्विकल्प शुद्धात्मा है) उसे मैं नमन करता हूँ (स्तवन करता हूँ, सम्यक् प्रकार से भाता हूँ)।'
उसका ही मैं ध्यान करता हूँ और उसमें ही मैंपन' करता हूँ कि जिस से मैं निर्विकल्प होता हूँ अर्थात् शुद्धात्मा का अनुभव करता हूँ; किसी भी विकल्प रूप ध्यान से इस शुद्धात्मा का निर्विकल्प ध्यान उत्तम है, आचरणीय है जो कि सम्यग्दर्शन के बाद ही होता है।
गाथा १२३ : अन्वयार्थ :- ‘संयम, नियम और तप से तथा धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान से जो आत्मा को ध्याता है, उसे परम समाधि है।' अर्थात् सम्यग्दृष्टि की आगे की भूमिका में जो करने योग्य है अर्थात् जो सहज होता है, उसका वर्णन किया है और अन्यों को भी वह अभ्यास रूप से भी करने योग्य है।
श्लोक २०२ :- ‘वास्तव में समता रहित (अर्थात् सम्यग्दर्शन रहित, क्योंकि सम्यग्दृष्टि को ही सच्ची समता बतलाया है) यति को अनशनादि तपश्चरणों से फल नहीं है (अर्थात् मुक्ति रूप फल नहीं है परन्तु संसार रूप फल है जो कि हेय है, इसलिये कहा है कि फल नहीं है); इसलिये हे मुनि! समता का कुल मन्दिर ऐसा जो अनाकुल निज तत्त्व (अर्थात् शुद्धात्मा) है उसे भज।'
अर्थात् सर्व प्रथम शुद्धात्मा का चिन्तन, निर्णय, लक्ष्य और योग्यता करके सम्यग्दर्शन प्राप्त करने योग्य है क्योंकि तत्पश्चात् ही सर्व तपश्चरण का अपूर्व फल अर्थात् मुक्ति रूपी फल मिलता है, अन्यथा नहीं। इसलिये जिस को भी बगैर सम्यग्दर्शन के अभ्यास रूप से मुनिपना लेना है, उस को एकमात्र लक्ष्य आत्म प्राप्ति का ही रखना चाहिये और आत्म प्राप्ति के लिये ही पूर्ण पुरुषार्थ करना चाहिये।
श्लोक २०७ :- “मैं - सुख की इच्छा रखनेवाला आत्मा - अजन्म और अविनाशी ऐसे निज आत्मा को आत्मा द्वारा ही आत्मा में स्थिर रहकर बारम्बार भाता हूँ।' जो कोई परम सुख के