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________________ 160 सम्यग्दर्शन की विधि _श्लोक १५८ :- ‘सर्व संग से निर्मुक्त, निर्मोही, अनघ और पर भाव से मुक्त ऐसे इस परमात्म तत्त्व को (इस प्रकार से भेद ज्ञानपूर्वक ग्रहण किये हुए शुद्धात्मा को) मैं निर्वाण रूपी स्त्री से उत्पन्न होनेवाले अनंग सुख के (अतीन्द्रिय सुख के) लिये नित्य सम्भाता हूँ (सम्यक् रूप से भाता हूँ - अनुभव करता हूँ) और प्रणाम करता हूँ।' श्लोक १५९ :- ‘निज भाव से भिन्न ऐसे सकल विभाव को छोड़कर (अर्थात् यहाँ भेद ज्ञान की विधि बतलायी है) एक निर्मल चिन्मात्र को (ज्ञान सामान्य रूप परमपारिणामिक भाव को) मैं भाता हूँ। संसार सागर से तिर जाने के लिये, अभेद कहे हुए (ऊपर जिस प्रकार अभेद समझाया है, उस प्रकार से अभेद कहे हुए) मुक्ति के मार्ग को भी मैं नित्य नमन करता हूँ।' श्लोक १६० :- ‘जो कर्म के दूरपने के कारण (अर्थात् कर्म और उनके निमित्त से होनेवाले भावों से भेद ज्ञान करने से वे गौण हो गये हैं और स्वयं को शुद्धात्मा प्राप्त हुआ है, उसके कारण) प्रगट सहजावस्थापूर्वक (अर्थात् सहज परिणमन रूप परम पारिणामिक भाव जो कि पंचम भाव भी कहलाता है, उसमें ही 'मैंपन' करके) रहा हुआ है, जो आत्मनिष्ठापरायण (आत्मस्थित) समस्त मुनियों की मुक्ति का मूल है (अर्थात् ऐसे शुद्धात्मा में ही 'मैंपन' करने योग्य है और उसका ही ध्यान करने योग्य है अर्थात् उसे ही सेवन करने से मुक्ति मिलती है अर्थात् श्रेणी चढ़ी जाती है और केवल ज्ञान-केवल दर्शन प्राप्त होता है और आयु क्षय से मोक्ष पाता है, इसलिये शुद्धात्मा को मुक्ति का मूल कहा है) जो एकाकार है (अर्थात् सदा वैसा का वैसा ही उपजता होने से त्रिकाली शुद्ध अर्थात् तीनों काल एक जैसा ही है इसलिये उसे त्रिकाली ध्रुव भी कहा जाता है), जो निज रस के फैलाव से भरपूर होने से (यहाँ निज रस कहा कि जो आत्मा का अरूपी अतिन्द्रिय आनन्द है, न कि कोई रूपी पुद्गल द्रव्य रूप सुधा रस) पवित्र है और जो पुराण है (अर्थात् सनातन है - तीनों काल वैसा का वैसा ही उपजता हुआ वह सहज परिणमन रूप परम पारिणामिक भाव कहलाता है), वह शुद्धशुद्ध (अर्थात् परम शुद्ध) एक पंचम भाव सदा जयवन्त है।' श्लोक १६१ :- ‘अनादि संसार से समस्त जनता को (जन समूह को) तीव्र मोह के उदय के कारण ज्ञान ज्योति सदा मत्त है, काम के वश है, (यहाँ आचार्य भगवन्त ने जगत की स्थिति का बयान किया है कि आप सब विषय-कषाय में रत हो और उपदेश भी दिया है कि आप उन विषय-कषाय में रतपना - वशपना छेदकर - छोड़कर ज्ञान ज्योति का अनुभव करो) और निज आत्म कार्य में मूढ़ है (अर्थात् संसार की समस्त होशियारी होने पर भी अपनी आत्मा की प्राप्ति के लिये योग्य काल की राह देखता अर्थात् नियतिवादी बनकर बैठा रहता है और अपना पूर्ण पुरुषार्थ संसार
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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