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________________ सम्यग्दर्शन की विधि गाथा ८२ : अन्वयार्थ :- 'ऐसा भेद अभ्यास होने पर जीव मध्यस्थ होता है (अर्थात् ज्ञानी को लब्ध में शुद्धात्मा और उपयोग में वर्तमान दशा होने से, ज्ञानी उस वर्तमान अशुद्ध दशा से मुक्त होने के उपाय रूप चारित्र ग्रहण इत्यादि करता है कि जिससे वह साक्षात् शुद्धात्म रूप मुक्ति प्राप्त कर सकता है न कि पुण्य के लक्ष्य रूप चारित्र अर्थात् यह पुरुषार्थ शुद्धात्मा के आश्रय से, कर्मों से मुक्ति प्राप्त करने के लिये ही होता है, अन्यथा नहीं), इसलिये चारित्र होता है। उसे ( चारित्र को ) दृढ़ करने के निमित्त मैं प्रतिक्रमणादि कहूँगा ।' 154 गाथा ८३ : अन्वयार्थ :- 'वचन रचना को छोड़कर (अर्थात् जो प्रतिक्रमण सूत्र रूप वचन रचना है, वह विकल्प रूप होने से उसे छोड़कर निर्विकल्प शुद्धात्मा को भाना, अनुभव करना और उसमें ही स्थिर होना, वही प्रतिक्रमणादि का लक्ष्य है और यदि वह लक्ष्य सिद्ध हो जाता हो तो उस वचन रचना रूप प्रतिक्रमण की आवश्यकता पूरी हो जाती है) रागादि भावों का निवारण करके (अर्थात् जीव के रागादि जो भाव हैं उन्हें ध्यान में न लेकर अर्थात् उन्हें गौण करके अर्थात् उन रागादि भावों में मैंपन नहीं करके), जो आत्मा को (परम पारिणामिक भाव रूप शुद्धात्मा को) ध्याता है, उसे (परमार्थ) प्रतिक्रमण होता है।' गाथा ९२ : अन्वयार्थ :- 'उत्तमार्थ (उत्तम पदार्थ) आत्मा है। उसमें (उस शुद्धात्मा में) स्थित मुनिवर कर्म का नाश करते हैं इसलिये ध्यान ही (शुद्धात्मा का ध्यान ही ) वास्तव में उत्तमार्थ का प्रतिक्रमण है।' श्लोक १२२ ‘समस्त विभाव को तथा व्यवहार मार्ग के रत्नत्रय को छोड़कर (अर्थात् समस्त विभाव को गौण करके तथा व्यवहार रत्नत्रय के सर्व विकल्प शान्त करके) निज तत्त्व वेदी (निज आत्म तत्त्व को जाननेवाला - अनुभव करनेवाला) मतिमान पुरुष शुद्ध आत्म तत्त्व में नियत (जुड़ा हुआ) ऐसा जो एक निज ज्ञान, दूसरा श्रद्धान और फिर तीसरा चारित्र, उसका आश्रय करता है। ' श्लोक १२३ :- ‘आत्म ध्यान के अतिरिक्त दूसरा सब घोर संसार का मूल है (अर्थात् ध्यान मात्र शुद्धात्मा का ही श्रेष्ठ है) और ध्यान ध्येयादिक सुतप (अर्थात् ध्यान, ध्येय इत्यादि के विकल्पवाला शुभ तप भी) केवल कल्पना में रम्य है (अर्थात् वास्तव में अच्छा नहीं है, कल्पना मात्र अच्छा है); ऐसा जानकर धीमान (बुद्धिमान पुरुष) सहज परमानन्द रूपी पीयूष के पूर में डूबते हुए (लीन होते हुए) ऐसे सहज एक परमात्मा का (परमपारिणामिक भाव रूप कारण परमात्मा का) ही आश्रय करता है । ' गाथा ९३ : अन्वयार्थ :- ‘(शुद्धात्मा के ) ध्यान में लीन साधु सर्व दोषों का परित्याग करते हैं; इसलिये ध्यान ही (उस शुद्धात्मा का ध्यान ही ) वास्तव में सर्व अतिचार का प्रतिक्रमण है।'
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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