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________________ नियमसार के अनुसार सम्यग्दर्शन और ध्यान का विषय 153 होने के हेतु (अर्थात् सम्यग्दृष्टि होने और मोक्षमार्ग में आगे बढ़ने) के लिये निरन्तर इस आत्मा को (अर्थात् ऊपर बतलाये शुद्धात्मा को) भजो कि जो (आत्मा) अनुपम ज्ञान के आधीन है, जो सहज गुणमणि की खान है, जो (सर्व) तत्त्वों में सार है और जो निज परिणति के सुखसागर में मग्न है।' श्लोक ६६ : अन्वयार्थ :- ‘जो अनाकुल है, अच्युत है, जन्म-मृत्यु, रोगादि से रहित है, सहज निर्मल सुखामृतमय है, उस समयसार को (अर्थात् परम पारिणामिक भाव रूप शुद्धात्मा, की जिसे कारण समयसार अथवा कारण शुद्ध पर्याय भी कहा जाता है) मैं समरस (अर्थात् उसमें ही एकरस होकर, उसमें ही एकत्व करके) द्वारा सदा पूजता हूँ।' अर्थात् मैं सदा समयसार रूप परम पारिणामिक भाव रूप शुद्धात्मा की भावना भाता हूँ। गाथा ४४ : अन्वयार्थ :- ‘आत्मा (शुद्ध द्रव्यार्थिक नय का विषय ऐसी शुद्धात्मा) निर्ग्रन्थ, निराग, नि:शल्य, सर्व दोष विमुक्त, निष्काम, नि:क्रोध, निर्मान, और निर्मद है।' आगे आचार्य भगवान कहते हैं कि स्त्री, पुरुष आदि पर्यायें, रस-गन्ध-वर्ण-स्पर्श और संस्थान तथा संहनन इत्यादि रूप पुद्गल की पर्यायें तो आत्मा की हैं ही नहीं परन्तु वैसे जो भाव आत्मा में होते हैं, उनमें भी मेरा 'मैंपन' नहीं, उनसे व्यतिरिक्त जो परम पारिणामिक भाव रूप शुद्धात्मा है, उसमें ही मेरा “मैंपन' है; इसलिये वे जीव कोई भी लिंग से (अर्थात विशेष रूप परिणमन से-पर्याय से) ग्रहण हो वैसे नहीं हैं, वैसा जीव मात्र अव्यक्त रूप है और वह पूर्व में बतलाये अनुसार भाव मन का विषय होता है और वही शुद्ध द्रव्यार्थिक नय के विषय रूप शुद्धात्मा की अपेक्षा से ‘सर्व जीव स्वभाव से सिद्ध समान ही है' ऐसा कहने में आता है और वैसा शुद्धात्मा ही उपादेय है अर्थात् एकत्व करने योग्य है। श्लोक ७३ : अन्वयार्थ :- 'शुद्ध निश्चय नय से मुक्ति में तथा संसार में अन्तर नहीं है; ऐसा ही वास्तव में, तत्त्व विचारते शुद्ध तत्त्व के रसिक पुरुष कहते हैं।' अर्थात् शुद्ध द्रव्यार्थिक नय से जीव तीनों काल सम्पूर्ण शुद्ध ही है, न कि जीव का कोई भाग शुद्ध और दूसरा भाग अशुद्ध। नय पद्धति में पूर्ण द्रव्य (प्रमाण का द्रव्य ही) मलिन पर्याय रूप अथवा पूर्ण शुद्ध रूप इत्यादि, अपेक्षा से कहा जाता है और वैसा ही समझ में आता है, एकान्त से नहीं; यदि उसे एकान्त से मलिन अथवा शुद्ध रूप मानने में आवे तो वह जैन दर्शन बाह्य ही समझना। ___आगे आचार्य भगवन्त सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के लिये किस प्रकार से और किस से भेद ज्ञान करना है, वह बतलाते हैं। जैसे कि नारकादि पर्यायें, मार्गणा स्थान, गुणस्थान, जीवस्थान, बाल वृद्ध इत्यादि शरीर की अवस्थायें, राग-द्वेष रूप कषायें मैं नहीं, मैं उनका कर्ता, कारयिता नहीं अथवा अनुमोदक भी नहीं अर्थात् उनमें मेरा कोई कर्ता भाव नहीं और उन्हें अच्छा मानता भी नहीं।
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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