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________________ नियमसार के अनुसार सम्यग्दर्शन और ध्यान का विषय 155 गाथा ९५ : अन्वयार्थ :- ‘समस्त जल्प को (वचन विस्तार को अर्थात् विकल्पों को) छोड़कर (अर्थात् गौण करके) और अनागत शुभ-अशुभ का निवारण करके (अर्थात् शुभाशुभ भावों को गौण करके अर्थात् शुभ-अशुभ भावों के विकल्पों को छोड़कर अर्थात् सर्व विभाव भावों को गौण करके अर्थात् समयसार गाथा ६ के अनुसार का भाव अर्थात् जो प्रमत्त भी नहीं है और अप्रमत्त भी नहीं है, ऐसा एक ज्ञायक भाव रूप) जो आत्मा को (अर्थात् शुद्ध द्रव्यार्थिक नय के विषय रूप शुद्धात्मा को) ध्याता है उसे (निश्चय) प्रत्याख्यान है।' अर्थात् सर्व पुरुषार्थ मात्र आत्म-स्थिरता रूप चारित्र के लिये ही हो कि जो साक्षात् केवल ज्ञान का कारण है। ___ गाथा ९६ : अन्वयार्थ :- 'केवल ज्ञान स्वभावी केवल दर्शन स्वभावी, सुखमय और केवल शक्ति स्वभावी वह मैं हूँ - ऐसा ज्ञानी चिन्तवन करते हैं।' अर्थात् ज्ञानी अपने को कारण समयसार रूप शुद्धात्मा ही अनुभव करते हैं। श्लोक १२८ :- ‘समस्त मुनिजनों के हृदय-कमल का (मन का) हंस ऐसा जो यह शाश्वत (त्रिकाली शुद्ध) केवल ज्ञान की मूर्ति रूप (ज्ञान मात्र), सकल-विमल दृष्टिमय (शुद्ध द्रव्यार्थिक नय का विषय - शुद्ध द्रव्य दृष्टि का विषय ऐसा शुद्धात्मा), शाश्वत आनन्द रूप, सहज परम चैतन्य शक्तिमय (परम पारिणामिक ज्ञानमय) परमात्मा जयवन्त है।' अर्थात् उसे ही भाने योग्य है, उस में ही मैंपन करने योग्य है। गाथा ९७ : अन्वयार्थ :- ‘जो निज भाव को छोड़ता नहीं (अर्थात् परम पारिणामिक भाव रूप सहज परिणमन, तीनों काल ऐसा का ऐसा ही होने से अर्थात् उपजने से और वही उसका निज भाव होने से बतलाया है कि वह निज भाव को छोड़ता नहीं और दूसरा ज्ञानी को लब्ध रूप से वही भाव रहता होने की अपेक्षा से भी कहा है कि निज भाव को छोड़ता नहीं) कुछ भी पर भाव को ग्रहण नहीं करता (अर्थात किसी भी पर भाव में मैंपन न करता होने से उसे ग्रहण नहीं करता ऐसा कहा है), सब को जानता देखता है (अर्थात् उसे ज्ञान मात्र भाव में ही मैंपन' होने से सर्व को जानतादेखता है, परन्तु पर में 'मैंपन' नहीं करता), वह 'मैं हूँ' (अर्थात् शुद्धात्मा, वह 'मैं हूँ') - ऐसा ज्ञानी चिन्तवन करता है।' अर्थात् अनुभव करता है और ध्याता है अर्थात् वही ध्यान का और सम्यग्दर्शन का विषय है। श्लोक १२९ :- 'आत्मा, आत्मा में निज आत्मिक गुण रूपी समृद्ध आत्मा को (अर्थात् शुद्धात्मा को)-एक पंचम भाव को (अर्थात् परम पारिणामिक भाव रूप आत्मा को) जानता है और देखता है (अनुभव करता है), वह सहज एक पंचम भाव को (अर्थात् आत्मा के सहज परिणमन
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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