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सम्यग्दर्शन की विधि
नियमसार के अनुसार सम्यग्दर्शन और ध्यान का विषय
आगे हम नियमसार की वे गाथायें तथा श्लोक देखेंगे जिनमें सम्यग्दर्शन का विषय (दृष्टि का विषय) और सम्यग्दृष्टि के ध्यान का विषय/स्थिरता का विषय बतलाया है।
आचार्य अमृतचन्द्र कृत टीका (आगे हर नियमसार श्लोक के लिये यही समझना) श्लोक ३८ अन्वयार्थ-'जीवादि बाह्य तत्त्व हेय हैं; कर्मोपाधिजनित गण पर्यायों से व्यतिरिक्त आत्मा आत्मा को उपादेय है।' यहाँ जो जीवादि विशेष रूप (अर्थात् पर्याय रूप) तत्त्व हेय कहे हैं अर्थात् कर्मों के निमित्त से हए जीव के विशेष भाव (अर्थात् विभाव पर्यायों) को हेय रूप बतलाया है, उसका अर्थ ऐसा है कि उन भावों में सम्यग्दर्शन के लिये मैंपन' नहीं करना है इस अपेक्षा से वे हेय रूप हैं। जबकि उस पर्याय (अर्थात् पूर्ण द्रव्य) में छिपे हुये सामान्य भाव अर्थात् परम पारिणामिक भाव रूप शुद्धात्मा सम्यग्दर्शन का विषय (दृष्टि का विषय) होने से आत्मा को उपादेय है, उसमें ही 'मैंपन' करने योग्य है क्योंकि वह त्रिकाली शुद्ध भाव है और शुद्ध द्रव्यार्थिक नय के चक्षु से आत्मा मात्र उतनी ही है, और वैसी ही (शुद्ध ही) है। इसलिये इस शुद्धात्मा के अतिरिक्त समस्त भाव जीव में ही होते होने पर भी, वे अन्य के लक्ष्य से होते होने से, उनमें सम्यग्दर्शन के लिये 'मैंपन' (एकत्व) करने योग्य नहीं है इसलिये इस अपेक्षा से वे जीव के भाव ही नहीं हैं, ऐसा पूर्व में बतलाया है, वही भाव आगे गाथा में दर्शाया है।
श्लोक ६० : अन्वयार्थ :- ‘सतत रूप से अखण्ड ज्ञान की (अर्थात् जो ज्ञान विकल्पवाला है तथा खण्ड-खण्ड है इसलिये उन ज्ञानाकारों को गौण करते ही अखण्ड ज्ञान की प्राप्ति होती है
और वही परम पारिणामिक भाव रूप शुद्धात्मा कहलाता है) सद्भावनावाली आत्मा (अर्थात् 'मैं अखण्ड ज्ञान हूँ' ऐसी सच्ची भावना जिसे निरन्तर वर्तती है, वह आत्मा) संसार के घोर विकल्प को नहीं पाती परन्तु निर्विकल्प समाधि को प्राप्त करती हुई पर परिणति से दूर, अनुपम, अनघ (दोषरहित, निष्पाप, मलरहित) चिन्मात्र को (- जानने देखने वाली आत्मा को) प्राप्त करती है।' अर्थात् वह जीव सम्यग्दर्शन को पाता है; वह जीव आत्म ज्ञानी होता है।
गाथा ४३ : अन्वयार्थ :- ‘आत्मा (परम पारिणामिक भाव रूप शुद्धात्मा) निर्दण्ड, निर्द्वन्द्व, निर्मम, नि:शरीर, निरालम्ब, नीराग, निर्दोष, निर्मूढ, निर्भय है।'
श्लोक ६४ : अन्वयार्थ :- ‘जो आत्मा भव्यता द्वारा प्रेरित हो, वह आत्मा भव से विमुक्त