SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 157
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ साधक को सलाह व्यवहार रत्नत्रय रूप पंचाचारों को अंगीकार करता है। यद्यपि ज्ञान भाव से वह समस्त शुभाशुभ क्रियाओं का त्यागी है, तथापि पर्याय में शुभ राग नहीं छूटता होने से वह पूर्वोक्त प्रकार से पंचाचार को ग्रहण करता है।' 151 जिस धर्म में (अर्थात् जैन सिद्धान्त में) 'सब जीव स्वभाव से सिद्ध समान ही हैं' - ऐसा कहा गया हो तब, सभी जीवों को अपने समान ही देखते हुए, कहीं भी वैर-विरोध को अवकाश ही कहाँ से होगा? अर्थात् विश्व मैत्री की भावना होती है और ऐसे धर्म में धर्म के ही नाम से वैर-विरोध और झगड़ा हो तो, उसमें समझना कि अवश्य हमने धर्म का रहस्य समझा ही नहीं है। इसलिये कहीं भी धर्म के लिये वैर, विरोध या झगड़ा न हो क्योंकि धर्म प्रत्येक की समझ अनुसार प्रत्येक को परिणमनेवाला है और इसीलिये उसमें मतभेद अवश्य रहने ही वाले हैं परन्तु वे मतभेद को मतभेद से अधिक, कोई राग-द्वेष के कारण रूप वैर, विरोध और झगड़े का रूप देना वह, उसी धर्म के लिये मृत्यु घण्टे समान है। इसलिये हम तो सब को एक ही बात बतलाते हैं कि धर्म के नाम से ऐसे वैर, विरोध और झगड़े हों तो उन्हें समाप्त कर देना और सभी जनों को वैर, विरोध और झगड़े अपने मन में से भी निकाल देना। अन्यथा वे वैर, विरोध और झगड़े आपको मोक्ष तो दूर, अनन्त संसार का कारण बनेंगे। इसलिये जिसे जो वैर-विरोध हो, उसे क्षमा कर देना ही हितप्रद है और भूल जाना ही हितप्रद है और उसी में ही जिन धर्म का हित समाहित है। ऐसा वैर-विरोध और झगड़ा भी धर्म को विपरीत रूप से ग्रहण करने का ही फल है, अन्यथा जिसने धर्म सम्यक् रूप से ग्रहण किया हो, उसके मन में वैर-विरोध उठे कैसे ? अर्थात् मात्र करुणा ही जन्मे, न कि वैर-विरोध अथवा झगड़ा, यह समझने की बात है और इसीलिये सभी जनों को धर्म निमित्त के वैर, विरोध अथवा झगड़ा भूलकर सत्य धर्म का फैलाव करना चाहिये, ऐसा हमारा मानना है।
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy