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सम्यग्दर्शन की विधि
प्रश्न III :- बहुत से साधक हम से प्रश्न करते हैं कि उन्हे प्रकाशमय आत्मा का अनुभव हुआ अथवा कोई कहते हैं कि वे एकदम हल्के फूल जैसे हो गये हों, ऐसा अनुभव हुआ अथवा कोई कहते हैं कि हम रोमांचित हो गये, इत्यादि। उत्तर :- ऐसे साधकों को हम बतलाते हैं कि ऐसे भ्रमों से अपने आप को ठगना योग्य नहीं हैं, क्योंकि स्वात्मानुभूति के काल में शरीर का किसी भी प्रकार का अनुभव होता ही नहीं, मात्र सिद्ध सदृश आत्मा का ही अनुभव होता है अर्थात् आंशिक सिद्ध सदृश आनन्द का अनुभव होता है अर्थात् आंशिक सिद्धत्व का ही अनुभव होता है और फिर आत्मा के सन्दर्भ में कोई भी प्रश्न रहता ही नहीं। इतना स्पष्ट अनुभव होता है। अर्थात् स्वात्मानुभूति के बाद शरीर से भेद ज्ञान प्रतीत होता है। दृष्टान्त रूप से-स्वात्मानुभूति के बाद आप दर्पण के सामने जब भी जायेंगे तब आप किसी अन्य व्यक्ति को निहारते हों ऐसा भाव आता है। प्रश्न IV :- किसी का यह भी प्रश्न होता है कि आपके गुरु कौन हैं? उत्तर :- हमारे गुरु भगवान महावीरस्वामी हैं, जिनकी दिव्य ध्वनि हमको शास्त्र रूप से प्राप्त हुई, जिससे हमें सत्य की प्राप्ति हुई अर्थात् सम्यग्दर्शन प्राप्त हुआ। उनके अलावा हमने अन्य बहुत से लोगों से कुछ ना कुछ अवश्य सीखा है, उनके भी हम अत्यन्त आभारी हैं।
सम्यग्दर्शन को प्राप्त करने के बाद अमृतचन्द्राचार्य कृत प्रवचनसार टीका श्लोक २०२ के अनुसार, सम्यग्दृष्टि जीव का विकास क्रम ऐसा होता है - 'सम्यग्दृष्टि जीव अपने स्वरूप को जानता है, अनुभव करता है, अन्य समस्त व्यवहार भावों से अपने को भिन्न जानता है। जबसे उसे स्व-पर के विवेक रूप भेद विज्ञान प्रगट हआ था, तब से ही वह सकल विभाव भावों का त्याग कर चुका है और तब से ही उसने टंकोत्कीर्ण निज भाव अंगीकार किया है। इसलिये उसे न कुछ त्यागना रहा और न कुछ ग्रहण करना-अंगीकार करना रहा। स्वभाव दृष्टि की अपेक्षा से ऐसा होने पर भी, पर्याय में वह पूर्व बद्ध कर्मों के उदय के निमित्त से अनेक प्रकार के विभाव भावों से परिणमता है। वह विभाव परिणति नहीं छूटती देखकर वह आकुल-व्याकुल भी नहीं होता तथा समस्त विभाव परिणति को टालने का पुरुषार्थ किये बिना भी नहीं रहता। सकल विभाव परिणति रहित स्वभाव दृष्टि के पुरुषार्थ से गुणस्थानों की परिपाटी के सामान्य क्रम अनुसार उसे पहले अशुभ परिणति की हानि होती है और फिर धीमे-धीमे शुभ परिणति भी छूटती जाती है। ऐसा होने से उस शुभ राग के उदय की भूमिका में गृह वास का और कुटुम्ब का त्यागी होकर