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साधक को सलाह
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(अर्थात् आत्मा की प्राप्ति के लिये) अभ्यास रूप ग्रहण किये हुए अणुव्रती अथवा महाव्रती समझना (मानना) और लोगों को भी वैसा ही बतलाना कि जिससे लोगों को ठगने का दोष भी नहीं लगे।
इसलिये शास्त्र में से किसी भी प्रकार का छल अथवा विपरीत यानि ठगने की बात ग्रहण नहीं करना परन्तु उसे यथार्थ अपेक्षा से समझना प्रत्येक मुमुक्षु के लिये अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि प्रत्येक शास्त्र में स्पष्ट कहने में आया है कि गिरने का अर्थात् निचली श्रेणी में जाने का तो कोई उपदेश दे ही नहीं सकता ? उपदेश तो मात्र ऊपर चढ़ने के लिये ही है अर्थात् कोई पहले गुणस्थानवाला व्रती हो तो उसे व्रत छोड़ना नहीं बतलाया परन्तु उसे अनुकूल गुणस्थान प्राप्त करने के लिये प्रोत्साहित किया है; उसे अन्यथा ग्रहण करके व्रत-प्रत्याख्यान छोड़ देना नहीं, वह तो महा अनर्थ का कारण है। तो ऐसा तो कोई आचार्य भगवन्त उपदेश देते ही नहीं न ? यह तो मात्र वर्तमान काल के मानवों की वक्रता ही है कि वे उसे विपरीत रूप से ग्रहण करते हैं, इसी प्रकार अनादि से हम धर्म को विपरीत रूप से ग्रहण करते आये हैं और इसीलिये अनादि से भटक रहे हैं।
अब तो बस हो! बस हो! ऐसी विपरीत प्ररूपणा। जैसे कि पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक ५० में भी कहा है कि 'जो जीव यथार्थ निश्चय स्वरूप को जाने बिना (अर्थात् सम्यग्दर्शन को प्राप्त किये बिना) उसे ही (अर्थात् उसे ही मात्र शब्द रूप से ग्रहण करके) निश्चय श्रद्धा से अंगीकार करता है, वह मूर्ख बाह्य क्रिया में आलसी है और बाह्य क्रिया रूप आचरण का नाश करता है।' प्रश्न I :- बहुत साधकों का प्रश्न होता है कि हमें तत्त्व का अभ्यास होने पर भी आत्मा का अनुभव क्यों नहीं होता ? अर्थात् सम्यग्दर्शन क्यों नहीं होता? उत्तर :- जैसे योग्य कारण बिना कोई कार्य नहीं होता, वैसे वैराग्य आये बिना अर्थात् भव से रोग रूप त्रास लगे बिना, सुख की आकांक्षा छोड़े बिना, किसी भी नय का पक्ष अथवा साम्प्रदायिक मान्यता का आग्रह छोड़े बिना और तत्त्व को विपरीत रूप से ग्रहण करके स्वात्मानुभूति अर्थात् सम्यग्दर्शन प्राप्त होना अति विकट है; इसलिये सभी साधकों को हमारा निवेदन है कि आप योग्य कारण अर्थात् वैराग्य रूप योग्यता प्रगट करें और पक्ष-आग्रह छोड़कर तत्त्व का यथार्थ निर्णय करेंगे तो सम्यग्दर्शन रूप कार्य अवश्य होगा ही, ऐसा हमारा अभिप्राय है। प्रश्न II :- बहुत साधकों का प्रश्न होता है कि आपको आत्मा का अनुभव हुआ तब क्या हुआ? अर्थात् आत्मा के अनुभव के काल में क्या होता है ? उत्तर :- स्वात्मानुभूति के काल में शरीर से भिन्न ऐसा सिद्ध सदृश आत्मा का अनुभव होता है, जिस में शरीर का किसी भी प्रकार का अनुभव नहीं होता।