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________________ 146 सम्यग्दर्शन की विधि ३१ साधक को सलाह साधक आत्मा को सर्वप्रथम तो अपना लक्ष्य दुनिया से हटाकर 'मैं और कर्म' इतना ज़रूर समझ लेना आवश्यक है क्योंकि अनादि से जो मेरा परिभ्रमण चलता है, वह कर्मों के कारण ही है। वे कर्म कहीं मात्र पुद्गल रूप नहीं, वे कर्म अर्थात् मेरे ही पूर्व में किये गये भाव हैं, कि जिनके निमित्त से ये पुद्गल कर्म रूप परिणमित हुए हैं। इसलिये समझना यह है कि अपने को यदि किसी ने सबसे अधिक दुःखी किया हो तो वह मात्र और मात्र 'मैं' ही हूँ अर्थात् वह मात्र अपने ही पूर्व में किये हुए भाव हैं, कि जिनके निमित्त से, पुद्गल कर्म रूप हुए और उन पुद्गल रूप कर्मों का उदय होने से ही मैं उनके निमित्त से परिणमनकर दुःखी हुआ । यदि व्यवस्था ऐसी ही होवे तो मैं ऐसा कैसे विचार कर सकता हूँ कि किसी अन्य व्यक्ति ने मुझे दुःखी किया है अथवा मेरा अहित किया है, क्योंकि ऐसा विचारने से ही उस व्यक्ति के साथ के सांकल रूप सम्बन्ध में एक नयी कड़ी जुड़ती है और मेरे नये कर्म बन्धते हैं कि जिनके उदय के समय फिर से इसी प्रकार नये कर्म बाँधने की सम्भावना खड़ी ही रहेगी, ऐसे अनुबन्ध को ही अनन्तानुबन्धी कषाय कहा जाता है। दूसरों का दोष देखने से आर्त्त ध्यान और रौद्र ध्यान होता है, वह न हो इसके लिये साधक जीव को दुःख के काल में पूर्व में बतलाये गये “धन्यवाद! स्वागतम्! (Thank you! Welcome!)'' के अन्तर्गत ऐसा विचारना कि - अहो ! मैंने ऐसा दुष्कृत्य पूर्व में किया था! तो उसके लिये मेरा मिच्छामि दुक्कडं (यह है प्रतिक्रमण) उसके लिये मैं पश्चात्तापपूर्वक अपनी निन्दा करता हूँ और अब मैं भविष्य में ऐसे भाव कभी भी नहीं करूँ ऐसी प्रतिज्ञा (प्रत्याख्यान) करता हूँ (यह है प्रत्याख्यान) और जो व्यक्ति मुझे मेरे ऐसे भावों से (कर्मों से छुड़ाने में निमित्त हुए हैं, वे मेरे परम उपकारी हैं, इसलिये वे धन्यवाद के पात्र हैं। ऐसा विचारने से उस व्यक्ति के प्रति न रोष आयेगा न दुर्भाव आयेगा। आयेगी तो मात्र कृतज्ञता । और मैं आर्त्त ध्यान और रौद्र ध्यान से बचकर शुभ भाव रूप धर्म ध्यान में स्थित रहने से एक तो उस व्यक्ति के साथ की साँकल टूट जायेगी (वैर छूट जायेगा) और नये दुःखदायक कर्मों का बन्ध रूक जायेगा। इसलिये मुमुक्षु जीव को ऐसा ही विचारना चाहिये और स्वयं को तथा सब को मात्र शुद्धात्मा देखने रूप (जैसा पूर्व अपेक्षा
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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