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________________ साधक को सलाह 147 से समझाया है वैसा, एकान्त नहीं) भाव में रहकर तत्त्व का निर्णय और सम्यग्दर्शन ही करने योग्य है। यहाँ कोई यह कहे कि आप तो शुभ की बात कर रहे हैं? उन्हें हम कहते हैं कि कोई भी जीव निरन्तर कोई न कोई (शुभ अथवा अशुभ) ध्यान/भाव करके अनन्तानन्त कर्म से बन्ध ही रहा है और यदि वह प्रयत्नपूर्वक आत्म लक्ष्य से शुभ में नहीं रहे तो नियम से अशुभ में ही रहेगा कि जिसका फल नरक गति तथा अनन्त काल की तिर्यंच गति है; जबकि एकमात्र आत्म लक्ष्य से जो जीव शुभ में प्रयत्नपूर्वक रहता है, उसे मनुष्य गति, देव-शास्त्र-गुरु तथा केवली प्ररूपित जिन धर्म इत्यादि मिलने की सम्भावनायें खड़ी रहती हैं और उसके कल्याण के दरवाज़े खुले रहते हैं और इसीलिये इसी अपेक्षा से हम आत्म लक्ष्य से शुभ भाव में रहने को कहते हैं, परन्तु उसमें एकमात्र लक्ष्य आत्म प्राप्ति ही होनी चाहिये, अन्यथा शुभ भाव भी अशुभ भाव की तरह ही जीव को बाँधता है और अनन्त संसार में भटकाता है, अनन्त दु:खों का कारण बनता यदि कोई ऐसा माने कि मुमुक्षु जीव को योग्यता अपने काल में हो जायेगी, उसके लिये प्रयत्न की आवश्यकता नहीं है; तो उनसे हम प्रश्न करते हैं कि क्या आप जीवन में पैसा, प्रतिष्ठा, परिवार इत्यादि के लिये प्रयत्न करते हैं? या फिर आप कहते हैं कि वे उनके काल में आ जायेंगे, बोलो आ जायेंगे? तो उत्तर अपेक्षित ही मिलता है कि हम उनके लिये प्रयत्न करते हैं। तो हम प्रश्न करते हैं कि जो वस्तु अथवा संयोग कर्म अनुसार अपने आप आकर मिलनेवाले हैं, उनके लिये आप बहुत ही प्रयत्न करते हैं। परन्तु जो आत्मा के घर का है, ऐसा पुरुषार्थ अर्थात् प्रयत्नपूर्वक आत्मा के उद्धार के लिये ऊपर बतलाया हुआ तथा अन्य आचरण जीवन में करने में उपेक्षा/ आलस करते हो ; तो आप जैन सिद्धान्त की अपेक्षा न समझकर उन्हें अन्यथा ही समझे हैं, ऐसा ही कहना पड़ेगा। क्योंकि जैन सिद्धान्तानुसार कोई भी कार्य होने के लिये पाँच समवाय का होना आवश्यक है और उनमें आत्म स्वभाव में पुरुषार्थ, वह उपादान कारण होने से ; यदि आप उसकी उपेक्षा करके मात्र निमित्त की राह देखकर बैठे रहेंगे अथवा नियति के समक्ष देखकर बैठे रहेंगे तो आत्म प्राप्ति होना अत्यन्त कठिन है। इसलिये मुमुक्षु जीव को अपना पुरुषार्थ अधिक से अधिक आत्म धर्म क्षेत्र में प्रवर्तित करना आवश्यक है और थोड़ा सा (अल्प) ही काल जीवन की आवश्यकताओं को अर्जित करने में डालना, यह प्रथम आवश्यकता है। जैसे आत्मानुशासन गाथा ७८ में बतलाया है कि :- 'हे जीव! आत्म कल्याण के लिये कुछ यत्न कर! कर! क्यों शठ होकर प्रमादी बन रहा है? जब वह काल अपनी तीव्र गति से
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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