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________________ ध्यान के विषय में 145 में तो उसे अनन्त संसार ही मिलता है; जबकि शुद्धात्मा का अनुभवन और ध्यान से मुक्ति मिलती है और मुक्ति न मिले तब तक स्वर्ग और स्वर्ग जैसा ही सुख होता है, इसलिये सभी को उसी का ध्यान करने योग्य है कि जो मुक्ति का मार्ग है और उस मार्ग में स्वर्ग तो सहज ही होता है, उसकी याचना नहीं होती ऐसा बतलाया है। अन्य मति के ध्यान, जैसे कि-कोई एक बिन्द पर एकाग्रता कराये, तो कोई श्वासोच्छ्वास पर एकाग्रता कराये अथवा तो अन्य किसी प्रकार से, परन्तु जिस से देहाध्यास ही दृढ़ होता हो ऐसा कोई भी ध्यान वास्तव में तो आर्त ध्यान रूप ही है। ऐसे ध्यान से मन को थोड़ी सी शान्ति मिलती होने से लोग ठगे जाते हैं और उसे ही सच्चा ध्यान मानने लगते हैं। दूसरा श्वासोच्छ्वास देखने से और उसका अच्छा अभ्यास हो, उसे कषाय का उद्भव हो, उसका ज्ञान होने पर भी, स्वयं कौन है, इसका स्वात्मानुभूतिपूर्वक का ज्ञान नहीं होने से, ऐसे समस्त ही ध्यान आर्त ध्यान रूप ही परिणमते हैं। उस आर्त्त ध्यान का फल है तिर्यंच गति, जबकि क्रोध, मान, माया-कपट रूप ध्यान, वह रौद्र ध्यान है और उसका फल है नरक गति; धर्म ध्यान के अन्तर प्रकारों में आत्मा ही केन्द्र में होने से ही उसे सम्यक् ध्यान कहा जाता है। मन की जाँच करने के लिये, स्वयं को क्या रुचता है? यह जाँच करना, आत्म प्राप्ति का थर्मामीटर-बेरोमीटर है। इस प्रश्न का उत्तर चिन्तवन करना, जब तक उत्तर में कुछ भी सांसारिक इच्छा/आकांक्षा हो, वहाँ तक अपनी गति संसार की ओर समझना और जब उत्तर - एकमात्र आत्म प्राप्ति, ऐसा हो तो समझना कि आपके संसार का किनारा बहुत निकट आ गया है ; इसलिये उसके लिये पुरुषार्थ बढ़ाना चाहिये। आगे हम साधक को मोक्षमार्ग की साधना के लिये आवश्यक बातें बताते हैं।
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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