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________________ सम्यग्दर्शन के लिये योग्यता 119 सब अच्छे-बुरे भाव होते तो मुझ में ही हैं, मगर मेरा अस्तित्व सिर्फ उतना ही नहीं है। अगर मेरा अस्तित्व उतना ही माना जाये तब फिर उसके नाश के साथ मेरा भी नाश मानने का प्रसंग खड़ा हो जायेगा। परन्तु मैं अनादि-अनन्त हूँ, अजर-अमर हूँ; यह बात तय होने से, यह सिद्ध होता है कि अच्छे-बुरे भाव होते तो मुझ में ही है, मगर वह मेरा स्वरूप नहीं है। वह अच्छेबुरे भाव रूप में ही परिणमता हूँ, मगर मात्र कुछ काल के लिये ही वे परिणाम टिकते हैं, वे त्रिकाल आत्मा में नहीं टिकते अर्थात् मेरा उस अच्छे-बुरे भाव के साथ आईना और उसमें झलकनेवाले प्रतिबिम्ब जैसा सम्बन्ध है, जिसमें उस झलकनेवाले प्रतिबिम्ब के नाश से आईने का नाश नहीं होता। यानि अपने को सर्व भाव रहित उस आईने की तरह स्वच्छ/शुद्ध अनुभव करना है, यही इस भावना का फल है। जिससे हम अपने को दुःख से मुक्त करा सकते हैं। अशचि भावना:- मुझे, मेरे शरीर को सुन्दर बतलाने/सजाने का जो भाव है, और विजातीय के शरीर का आकर्षण है, उस शरीर की चमड़ी को हटाते ही मात्र माँस, खून, पीव, मल, मूत्र इत्यादि ही ज्ञात होते हैं, जो कि अशुचि रूप ही हैं। ऐसा चिन्तवन कर अपने शरीर का और विजातीय के शरीर का मोह तजना, उस में मोहित नहीं होना चाहिये। जीव को अनादि से अपने शरीर का और विजातीय के शरीर का आकर्षण है और उसी वजह से जीव अनादि से - आहार, मैथुन, परिग्रह और भय से ग्रस्त है। इन्हीं के पीछे भागकर जीव अनन्तानन्त बार बर्बाद हुआ है, उसने अनन्तानन्त दुःख भोगे हैं और अभी भी उन्हीं के पीछे भागने की वजह से ही दुःखी हो रहा है। जीव को शरीर के आकर्षण से मुक्त कराने हेतु यह भावना का चिन्तन आवश्यक है। आत्मा के लिये सर्व परपदार्थ अशुचि ही हैं क्योंकि अनादि से पर में ही मैंपन' और 'मेरापना' करके जीव दुःख भोगता आया है। आत्मा के लिये शुद्धात्मा के अलावा सारे संयोगी भाव अशुचि ही हैं क्योंकि वे सभी भाव आत्मा की मुक्ति में बाधाकारक हैं। इसलिये केवल शुद्धात्मा ही मैंपन के योग्य है। यही शौच धर्म है, यही परम धर्म है, यही सिद्ध पद का उपाय है। यही अनन्त दु:खों से छुटकारा पाने का उपाय है। यही इस भावना का फल है। आस्रव भावना:- पुण्य और पाप ये दोनों मेरे (आत्मा के) लिये आस्रव हैं; इसलिये विवेक द्वारा पहले पापों का त्याग करना और फिर एकमात्र आत्म प्राप्ति के लक्ष्य से शुभ भाव में रहना कर्तव्य है। अनादि से जीव मिथ्यात्व युक्त राग-द्वेष करके कर्मों का आस्रव करता आया है, फिर
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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