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________________ 118 सम्यग्दर्शन की विधि ही अनुभव करना, उसे ही सम्यग्दर्शन कहा जाता है। वही इस जीवन का एकमात्र लक्ष्य और कर्तव्य होना चाहिये। अनादि से कर्म संयोगवश पर में ही 'मैंपन' और 'मेरापना' मान कर जीव दुःख भोगता आया है। जैसे कि शरीर, धन, पत्नी, पुत्र, परिवार, आदि में ही अनादि से मैंपन' और 'मेरापना' मानकर जीव दु:ख भोगता आया है। अब कब तक ऐसे दुःख भोगते रहना है? अर्थात् कब तक पर में ही 'मैंपन' और 'मेरापना' मानना जारी रखकर दुःखी होना है ? पत्नी, पुत्र, परिवार आदि मेरे लिये अन्य हैं, हर एक जीव स्वतन्त्र है इसलिये उसकी स्वतन्त्रता का आदर करते हुए मुझे अपना कोई भी निर्णय, आग्रह, हठाग्रह, कदाग्रह, दुराग्रह इत्यादि दूसरों के ऊपर थोपने का प्रयास नहीं करना चाहिये। हम अन्यों को प्रेम से समझा सकते हैं, प्रेरणा दे सकते हैं परन्तु आदेश नहीं दे सकते। अर्थात् व्यवहारिक कार्य के लिये हमारा जो दायित्व है, उसका निर्वहन करने के लिये भी अगर कोई कठोर निर्णय या आदेश आवश्यक है तब भी किसी को अन्याय न हो इसका ख़याल रखकर अपना दायित्व निभाना चाहिये। अर्थात् सभी जीवों की स्वतन्त्रता का आदर करते हुए समाज, देश या धर्म के लिये जो भी नियम आवश्यक हों, वे बना सकते हैं। अन्यों के ऊपर अपना कोई भी निर्णय, आग्रह, हठाग्रह, कदाग्रह, दुराग्रह इत्यादि थोपना नहीं चाहिये अन्यथा हमें भी ऐसा कई बार झेलना पड़ सकता है। यही कर्म का भी सिद्धान्त है। ऐसा मोह कर्म, जो आत्मा को ख़ुद के स्वरूप-आस्वादन के भाव को भी जन्म नहीं लेने देता; उसे दूर करने का एकमात्र मार्ग इस भावना को दृढ़ करने से मिलता है। इस भावना से सभी संयोग भाव को तलाशना और तय करना है कि मैं कौन हूँ? और मेरा क्या है? शरीर को छोड़कर अन्य सभी वस्तुएँ तो प्रगट में भी अपने से भिन्न दिखती हैं, इसलिये अनादि से शरीर में ही मैंपन मानकर रखा है। यही सबसे बड़ी ग़लती है जिस कारण जीव अनादि से इस संसार में रुल रहा है और अनन्त दुःख भुगत रहा है। अगर इस चक्कर से छुटकारा पाना हो तब फिर इस भावना के अलावा और कोई उपाय नहीं है। यह सोचना चाहिये कि जब आत्मा इस शरीर को छोड़कर जाती है, तब शरीर यहाँ पर ही रह जाता है जिसे जला दिया जाता है। अगर वह शरीर 'मैं' होता तब वह भी आत्मा के साथ जाना चाहिये था, इस तरह तय होता है कि 'मैं' शरीर नहीं हूँ। उससे आगे जब हम सोचते हैं तब फिर जो अच्छे-बुरे भाव होते रहते हैं, उनमें मैंपन होता है; क्या वह सही है ?
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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