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________________ 120 सम्यग्दर्शन की विधि वह अनन्त काल तक उन कर्मों के चक्कर में ८४ लाख योनियों में भटकता रहता है और अनन्तानन्त दुःख भोगता है। सबसे बड़ा आस्रव मिथ्यात्व ही है, इसलिये शीघ्र ही उसे दूर करने का उपाय करना चाहिये क्योंकि एक बार मिथ्यात्व जाने से आत्मा का अनुभव होता है, फिर उसमें बारबार अतीन्द्रिय सुख अनुभव करने की लत अपने आप लग जाती है, जो अन्त में आत्मा की आस्रव मुक्ति का कारण बनती है; यही है इस भावना का फल। विषय और कषाय भी आस्रव के कारण हैं और मिथ्यात्व, जो कि आस्रव का सबसे बड़ा कारण है, वे उसे पुष्ट भी करते हैं। इसलिये मुमुक्षु जीव को सदैव विषय और कषाय को मन्द करने का और सम्यग्दर्शन के लिये कही गई अन्य योग्यतायें अर्जित करने का प्रयास करना चाहिये। जब जीव ने अनादि से इन्द्रिय के एक-एक विषय के पीछे भागकर अनन्तों बार अपने प्राण गँवाये हैं, फिर इस मनुष्य भव में अगर वह पाँचों इन्द्रियों के विषयों के पीछे भागेगा तब उसका क्या हाल होगा ? वह अपने लिये अनन्त दु:खों को आमन्त्रण देने का ही काम करेगा। वैसे भी एकएक कषाय जीव को अनन्त दुःख देने के लिये सक्षम है। ____ जीव के लिये पुण्य भी आस्रव है परन्तु जब वह जीव एकमात्र आत्म प्राप्ति और आत्म स्थिरता के हेतु शुभ भाव में रहता है, तब उसे पुण्यानुबन्धी पुण्य और सातिशय पुण्य का आस्रव/ बन्ध होता है। वैसे पुण्य मोक्षमार्ग में बाधा रूप नहीं होते बल्कि सहायक ही होते हैं अर्थात् जब तक उस जीव का मोक्ष नहीं होता, तब तक ऐसे पुण्य से उस जीव को साता रूप/अनुकूल संयोग प्राप्त होते हैं। संसार के जीवों का विचार करने से समझ में आता है कि वे किस तरह से आस्रव से बन्ध रहे हैं, उनको देखकर हमें यह सोचना चाहिये कि मैंने भी अनन्त बार इस तरह के आस्रव से बन्ध किया है और उसकी पश्चात्ताप पूर्वक क्षमापना करनी चाहिये, आगे ऐसे आस्रव का सेवन कभी नहीं करूँगा, यह तय करना चाहिये ; इस तरह से हर एक जानकारी का उपयोग मुझे अपने (आत्मा के) फ़ायदे के लिये ही करना है। इस तरीके से आस्रव भावना का उपयोग करके हमें मुक्त होना है; यही इस भावना का फल है। संवर भावना :- सच्चे (कार्यकारी) संवर की शुरुआत सम्यग्दर्शन से ही होती है, इसलिये उसके लक्ष्य से पापों का त्याग करके एकमात्र सच्चे संवर के लक्ष्य से द्रव्य संवर पालना चाहिये। ऊपर कहे अनुसार अनादि से जीव मिथ्यात्व युक्त राग-द्वेष करके कर्मों का आस्रव करता आया है, अब सम्यग्दर्शन प्राप्त करके जैसे-जैसे आत्मानुभूति का काल और आवृत्ति बढ़ती जाती
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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