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________________ सम्यग्दर्शन के लिये योग्यता 107 १. लोग आगमों और शास्त्रों का यथार्थ अर्थ घटन नहीं कर पा रहे हैं अर्थात् जो भी अर्थ घटन किया है, वह प्राय: एकान्त रूप ही किया है यानि प्राय: एकान्त रूप धर्म का ही प्रवर्तन चल रहा है। २. लोग कई आगमों और शास्त्रों को ही नहीं मानते और जिन्हें मानते भी हैं, उन्हें समग्र रूप से नहीं मानते। वे उन आगमों और शास्त्रों की भी वही बातें मानते हैं और प्रचार करते हैं, जो बातें उनके मत के उपयुक्त हैं और अन्य को गौण कर देते हैं। ३. प्राय: लोग साम्प्रदायिक क्रियाओं को ही धर्म मान लेते हैं, जबकि ऐसी क्रियायें गणवेश मात्र ही हैं। जैसे, छात्र स्कूल में गणवेश पहनकर जाने से ही उत्तीर्ण नहीं हो जाता, उसको गणवेश के साथ-साथ पढ़ाई भी करनी पड़ती है, तब जाकर वह उत्तीर्ण होता है। वैसे ही मुमुक्षु को साम्प्रदायिक क्रियाओं के साथ-साथ अपने भाव भी सँवारना पड़ता है अर्थात् भाव शुद्धि भी आवश्यक है, तभी उसे मोक्षमार्ग की प्राप्ति सम्भव हो सकती है, यह समझना आवश्यक है। धर्म आन्तरिक प्रक्रिया ज़्यादा है, इसीलिये अनन्त काल से कई लोगों की बाहर की सभी क्रियाएँ शुद्ध होने के बावजूद भी सत्य धर्म की प्राप्ति नहीं हो पायी है। उसी का विशेष स्पष्टीकरण भी दे रहे हैं। लोग आगमों और शास्त्रों का यथार्थ अर्थ घटन नहीं कर पा रहे हैं अर्थात जो भी अर्थ घटन किया जा रहा है, वह प्राय: एकान्त रूप ही किया गया है यानी प्राय: एकान्त रूप धर्म का ही प्रवर्तन चल रहा है। उसके कुछ ज्वलन्त उदाहरण प्रस्तुत करते हैं :उदाहरण I :- कई लोग ऐसा कहते हैं कि - "दृष्टि (सम्यग्दर्शन) का विषय यानि पर्याय रहित द्रव्य' और उसका अक्षरश: अर्थ करते हुए पर्याय को द्रव्य से भिन्न करने का प्रयास भी करते हैं। एक बार द्रव्य को कैंची से काटना ही पड़ेगा और फिर उसे जोड़ देंगे ऐसी बातें कपड़े सिलने का उदाहरण देकर भी करते रहते हैं और द्रव्य और पर्याय के ध्रुव भी अलग-अलग मानते हैं अर्थात् दो ध्रुव मानते हैं। लेकिन द्रव्य अभेद होने के कारण उसमें से कुछ निकाल नहीं सकते या काट भी नहीं सकते और इसी कारण से ऐसे लोग प्राय: भ्रम में ही रहते हैं। ऐसे लोग प्रायः एकान्तवादी होते हैं और अपने धर्म-कर्तव्य और योग्यता प्राप्ति को भी क्रमबद्धपर्याय के नाम से नियति के ऊपर छोड़कर अपना पूरा पुरुषार्थ अर्थ और काम के पीछे ही लगाते हैं। उन्हें पता नहीं कि क्रमबद्धपर्याय में पाँचों समवाय शामिल होते हैं, केवल नियति को क्रमबद्धपर्याय मानना ग़लत है; यह अर्थ घटन भी एकान्तवाद का ही नमूना है। वैसे लोग अर्थ और प्रलोभनों को ही
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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