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ब्रह्मचर्यरूपी समुद्रने विषे मळे छे. कोइ माणस गमे तेटलं दान पुन्य करे पण ते ब्रह्मचर्यने तोले आवतुं नथी, सर्व करता ब्रह्मचर्य ज बघे छे, कहां छे के
सी जो देह कणयकोडिं, अहवा कारेह कणयजिणभवणं । तस्स न तत्ति अ पुन्नं जत्तिय वंभव्वए धरि ॥ १ ॥ भावार्थ:- जे कोइ माणस दानने विषे कोटी सुवर्णनुं दान आपे, अथवा सर्वथा प्रकारे सुवर्णनुं जैनमंदिर बंधावे, तो पण जेटलं पुन्य ब्रह्मचर्यना धारण करवाथी थाय छे, तेटलं पुन्य उपरना कार्य करवाथी पण थतुं नथी.
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आ उपरथी सिद्ध थाय छे के, ब्रह्मचर्यनुं पुन्य कर्म महान् छे, ब्रह्मचर्यना सेवन करनारने तमाम प्रकारना दुःखो त्याग करे छे, इहलोकमां घणो ज यश पामे छे, ज्यां जाय त्यां ब्रह्मचर्यना प्रतिपालन करनारना वर्णवादने देवतादिक पण बोले ठी छे अने अग्नि पाणि विषशस्त्रो रोग शोकादिकना तमाम भयो ब्रह्मचर्यधारीना दूर थाय छे. ब्रह्मचर्यधारी सुंदर रूप शील
नुं
मेळवी स्वल्प समयमा कर्मना अंतने करे छे, माटे ज सर्व आभूषणोने विषे ब्रह्मचर्यने परम आभूषण कहेल छे, कह्युं छे केशीलं नाम नृणां कुलोन्नतिकरं शीलं परं भूषणं, शीलं ह्यप्रतिपातिवित्तमनघं शीलं सुगत्यावहं । शीलं दुर्गतिनाशन सुविपुलं शीलं यशः पावनं, शीलं निर्वृतिहेतुरेव परमं शीलं तु कल्पद्रुमः ॥ १ ॥ भावार्थ:- नाम इति आमंत्रणे ! शीयल जे ते मनुष्योना कुलनी उन्नत्ति करनारुं छे, शीयल मनुष्योना परम आभूषण समान छे, शीयल कोइ पण प्रकारे नहि नाश पामनार पाप रहित उत्तम धन समान छे, शीयल सद्गतिने करवावाळु त छे, तथा शीयल दुर्गतिने हणनारुं छे अने शीयल विस्तारवाळा निर्मल यशने आपनारुं छे, शीयल महा पवित्रपणुं उत्पन्न
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