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________________ तेर चौमासी व्यारूयान ॥ काठीयार्नु स्वरूप ॥ ॥३३॥ महाराजने उत्तम प्रकारना आहारादिक वहोरावती नजरे पडी अने मुनि महाराज पण तेना सन्मुख नहि जोता, पोताना नासावंश नाशिकानी दांडी उपर दृष्टि नांखी काइक आहारना अग्रपिंड उपर दृष्टि अवलोकन करता आहारने लेवा लाग्या, तेने जोइ काइक वैराग्यरंगीत थइ इलाची कुमार विचार करवा लाग्यो के, अहो ! अहो ! आ महा मुनिराजने धन्य छे के, आ साक्षात् देवांगना समान स्वीना उपर पण पोतानी दृष्टिने नाखता नथी, खरेखर मुनियोनो मार्ग आहार ग्रहण करवानो वीतराग महाराजे आवी रीते ज कहेल छे. कयुं छे के, काचिचंद्रमुखीसमेतिसकलालंकारभारान्विता, दुरान्वेषणकारितर्णककृते कृत्वान्नपिंडीकरे, पिंडीमात्रमवेक्षते'स हि यथा रूपादिनीरागहग्', दृष्टांतः कथितोऽयमेव यतिनां भक्तषणादौ जिनैः ॥१॥ भावार्थ:-सर्व वस्त्रालंकारना समूहथी युक्त थइ, कोइ चंद्रमाना समान मुखवाली स्त्री, अन्नपिंडने हस्तकमलमां ग्रहण करी तर्णक कहेता गायनो वाछडो, अगर लघु बाळकने जेम खवराववा आवे छे, तो ते वाछडाने तेम ज लघु बालकने ते अन्न पिंडवल्लभ होवाथी, ते पिंड उपर ज पोतानी दृष्टि स्थापन करे छे, पण रूपादिकने विषे दृष्टि स्थापन करता नथी, तेम ज मुनियोने आहारपाणि ग्रहण करवाने माटे तेज प्रमाणे दृष्टांत कहेल छे एटले के फक्त आहार पिंडना उपर द्रष्टि नाखी आहारने ग्रहण करी चाल्या जाय छे, पण स्त्रीयोना सन्मुख जोता नथी, ते ज खरेखरा त्यागी कहेवाय छे. कयुं छे केयस्य यनास्ति रुचितंन तत्र तस्य स्पृहा मनोज्ञेऽपि रमणीयेऽपि सुधांशो न नामकामः सरोजिन्या॥१॥ भावार्थ:-जेने जे जे रुचतुं नथी, तेने ते ते मनोहर होय तो पण तेनी स्पृहा होती नथी, इच्छा थती नथी, कारण 11913.49-5453
SR No.034170
Book TitleChaumasi Vyakhyan Bhashantar Tatha Ter Kathiyanu Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManivijay
PublisherJain Sangh Boru
Publication Year1936
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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