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________________ ते तेर चौमासी व्याख्यान / / // 18 // 卐yyy卐 卐卐4 बहुतरं च सहिष्यसि जीव हे, परवशो न च तत्र गुणोस्ति ते // 1 // भावार्थ:-हे जीव ! तुं शरीरना खेदने सहन कर, कारण के हारे ने पुद्गलने कांइ पण संबंध नथी. पुद्गल जड IS काठीयानु वस्तु छे. सात धातुरूप माटीथी उत्पन्न थयेलुं छे, ने माटीने विषे ज मलवानुं छे. हे जीव ! तुं ज्ञान-दर्शन-चारित्र सहित स्वरूप॥ छे, तेम ज पुद्गलथी भिन्न छे, माटे कायक्लेश सहन कर, कारण के फरीथी तने स्वतंत्रपणानी प्राप्ति थवी दुर्लभ छे. रे चेतन ! अति परवश थइ अनेक प्रकारनां दुःखो सहन करीश तेमां तने लगार मात्र गुण या लाभ नथी. आ आत्मा दरेक पदार्थने म्हारा मानी हुं अने म्हारापणामां अनेक प्रकारना पापकर्मने बांधी तियच तथा नरकादिकना महा सैरव दुःखने | भोगवे छे. नरकादिकनां भयंकर दुःखो सांभलतां पण त्रास थाय छे, तो पछी साक्षात् जेने उदय आवेल होय तेनी वेदनानुं तो कहेQ ज , तियंचमां पण क्षुधा, तृषा, अंकन, दहन, नाथन, छेदन, भेदन, पंढीकरण, आर-परोणादिकवडे करी ताडन-तर्जनादि अनेक दुर्वचनोने सहन करवा पडे छे. नरकादिकने विषे पण कुंभीपाकने विषे उत्पन्न थq. अंदरथी कीडा खाय छ, उपरथी कागडा चुंथे छे. सिंह, वाघ, वरु, श्वान, बिलाडादिकना रूपोने परमाधामी करी विविध प्रकारे करेली वेदना सहन करवी. वळवू, झळवू, वैतरणीमां भळg, स्वमांस रुधिरादिकनुं खावं, पीवु, तृप्त त्रपुर्नु पान करवू, शक्ति, तोमर, मुद्गर, वज्रादिकोना प्रहारो सहन करवा, अंधारामां वसवं, अनंती दुर्गधिमां वास करवो, परमाधामी कृत वेदना, तथा क्षेत्रवेदना, तथा अरस परसनी वेदना, सहन करी दुःखे करीने दूर थाय तेवा पल्योपमो ने सागरोपमो सुधी महा आक्रंदोने करता काळ व्यतीत करवो. तेवा परवशपणाथी आत्माने लवलेश मात्र गुण थतो नथी. माटे ज वेदनीनो उदय Ayyy卐卐卐y // 18 //
SR No.034170
Book TitleChaumasi Vyakhyan Bhashantar Tatha Ter Kathiyanu Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManivijay
PublisherJain Sangh Boru
Publication Year1936
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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