________________ चौमासी न्याख्यान || काठीयानुं स्वरूप // '卐卐卐卐卐 आव्या अने स्वर्णपानादिक करावी बन्ने बालकोने मूर्छा रहित विषमुक्त कर्या. राजाये विषY कारण दासीने पुछवाथी तेणीये | कडं के हे स्वामिन् ! बीजुं हुं कांइ जाणती नथी पण आ लाडु लइने आवती हती त्यारे बने बालकोनी माताये म्हारा हाथमांधी लाडु लीधो हतो अने मने पाछो तुरत आप्यो हतो ते अवसरे राजाये तेनी अपरमाताने बोलावी कयुं के हे पापिणि ! आ तें शुं कयु. हुं तने प्रथमथी ज राज्य आपतो हतो छतां तें लीधुं नहि, अने हालमां तें लगार मात्र पण धर्म जेणे कर्यो नथी एवा मने मारीने नर्के पहोंचाडयो होत, म्हारी शी दशा-शी गति थात, आवी रीते कही वैराग्यवंत थइ तेना पुत्रने राज्य आपी सागरचंद्रे दिक्षा अंगीकार करी. ____ अन्यदा प्रस्तावे अवंती नगरीथी आवेला मुनिमहाराजाओने सागरचंद्रे कडं के त्यां सुख छ ? त्यारे मुनियो कहेवा | लाग्या के त्यां सुख शानुं होय, कारण के राजानो पुत्र तथा पुरोहितनो पुत्र बन्ने मुनियोने पाखंडीयोनी जेम पीडा बहु ज करे छे, माटे मुनियोने ते नगरीमां उपद्रव बहु ज थाय छे, साधुओना आवा प्रकारना वचनो सांभळी सागरचंद्र मुनि शीघ्रताथी अवंती नगरीने विषे आव्या ने बीजा मुनिमहाराजना भेगा उतर्या. हवे ते मुनियो नवीन आवेल सागरचन्द्र मुनिनी भक्ति करवा माटे सागरचंद्र मुनिने आहार लाववा संबंधी पुछवा मांड्या त्यारे तेमणे कयु के हुं म्हारे हाथे ज म्हारो आहार लावीश एम कही तेओ गोचरी चाल्या, तथा राजा पुरोहितना पुत्रो ज्यां रहेता हता ते स्थान जोवा माटे एक नाना मुनिने साथे लीधा, दुरथी स्थान देखाडी साथे आवेल नाना मुनि पाछा फर्या पछी 'धर्मलाभ' आवा प्रकारना ज शब्दनो उंचे स्वरे | उच्चार करता जल्दी तेना घरने विषे पेठा, ते अवसरे हे महाराज! तमे उंचे स्वरे बोलो नहि एम कहेती तुरत राणीयो बहार | // 14 //