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हेतुभूत छे. वली अधिक तथा हीन अंगोपांगवालो माणस प्राय: करी विषम स्वभाववालो होय छे. तेवा माणसोने विषे ते गुणो होता नथी, तेथी संपूर्ण यथार्थ अंगोपांगवालो रूपयुक्त माणस पण धर्मना हेतुभूत छे. तथा कुष्ट, जलोदर, सोजा, ड कास, श्वास, ज्वरादिक रोगवाला माणसथी पोतानुं शरीर दुःखयुक्त होवाथी तेमनाथी व्रत प्रत्याख्यानादिक सामग्रि मेलवी शकाती नथी. माटे निरोगीपणुं जे छे, ते पण धर्मना हेतुभूत छे. वली जे माणस अल्प आयुषवालो होय छे, तेनाथी क संयम, तप अने ज्ञाननी वृद्धि थइ शकती नथी. माटे दीर्घ आयुष पण धर्मना हेतुभूत छे. जे माणस निर्मल बुद्धि विनानो होय, ते माणस हेय, ज्ञेय अने उपादेय तेम ज धर्मनी परीक्षा करवी जाणी शकतो नथी. ते बुद्धिहीन माणस आत्मसाधनना रस्ताने पण समजी शकतो नथी, तो आत्मानुं साधन करवानुं तो साधन केवी रीते साधी शके ! अर्थात् न ज साधी शके ! माटे निर्मल बुद्धि पण धर्मना हेतुभूत छे. वली संवेद, निर्वेद तथा ज्ञानावरणीय कर्मनो क्षयोपशम तेम ज तत्वादिकनो अधिगम इत्यादिक विगेरे, गुरु महाराजना उपदेशथी श्रवण करवानुं फल छे. तेने जे माणस गुरु महाराजना मुखथी भा उपदेश श्रवण करतो नथी, ते माणस उपदेश श्रवण करवानुं फल केवी रीते जाणी शकनारो हतो ! अर्थात् न ज जाणी नुं
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शके, माटे गुरुमहाराजना उपदेशने सांभलवो, ते पण धर्मना हेतुभूत छे. वली जेवी रीते छिद्रवाला घढाने विषे नाखेलुं पाणी नीचे ढली जवाथी कांइपण विशेष गुणना हेतुभूत थतुं नथी, तेवी ज रीते गुरुमहाराजना उपदेशने श्रवण करी अवधारणा कर्या शिवाय, गुरुमहाराजनी वाणीरूपी वारि हृदयरूपी घडाने विषे केवी रीते टकी शकनारुं हतुं ! अर्थात् टके ज नहि. माटे अवधारणा पण धर्मना हेतुभूत छे, तथा गुरुमहाराजना उपदेशने श्रवण करी हृदयमां राख्यो, पण श्रद्धा
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