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चौमासी
व्या
ख्वान ॥ सी
मा
जीवो सुखनी अभिलाषा करे छे, पण धर्म विना ते सत्यसुख मली शकतुं नथी, वली धर्म बिना मुक्ति नथी, मनुष्यो देव अने मनुष्यपणाना सुखनी अभिलाषा करे छे, परंतु लांबी दृष्टिथी विचार करता, तिर्यंच, नरक, देव, मनुष्य कोइपण ॥ ८५ ।। या गतिमां सुख ज नथी, साधुं सुख मोक्षमां ज छे अने तेने मेलववा माटे भव्य जीवोने कटीबद्ध थवुं जोइये, अविनाशी सुख केवल मुक्तिमां ज छे, शिवाय भजना, बीजे ठेकाणे समजवी. हा एटलं तो खरुं ज के, जेम विष्टानो कीडो तेमां ज आनंद अने सुख माने, तेवीज रीते, ते मनुष्योने पण देव, मनुष्य, तिर्यंच, नरकगतिमां समजवानुं छे, परिणामे तो देव, मनुष्य, तिर्यंच, नरकने विषे वेदना ज छे. जुओ तपासो. नरक वेदना
ख्या
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रहित जीवोने ते शुं उपकार करनारो हतो ! अर्थात् कांइ ज नहि, माटे देव गुरु धर्मना उपर श्रद्धा पूर्ण राखवी ते पण धर्मना हेतुभूत छे.
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काठीयानुं र स्वरूप ॥
निरंतर शरीर अने मनथकी तीव्र दुःखो वडे करी दुःखी थता जीवोने नरकने विषे चक्षु मींचीने उघाडे तेटलं मात्र पण सुख नथी. पापकर्म करी सांकडा मुखवाला घडाने विषे उत्पन्न थयेला जीवोने नरकने विषे साणसा वडे करी परमाधामीयो बहार काढे छे, ते दारुण महा घोरातिघोर नरकना जीवोने पहेलुं दुःख छे. वली उष्ण नरकने विषे उत्पन्न थयेला नरकना जीवने उष्ण नरकथी उपाडी कोइक देव, ग्रीष्म ऋतुने विषे प्रज्वलित चिताने विषे नाखे तो ते जीव सुख माने स्व छे, कारण के उष्ण नरकने विषे उष्णतानी असह्य उष्णता होय छे, वली इंहां शीतलता होय छे, तेना करता असंख्य गणी शीतलता नरकने विषे होय छे, ते शीतलतामां कदाच कोइक हजार भार लोखंडनो गोळो नाखे, तो पण ते गळी जाय छे.
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॥ ८५ ॥