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करी अपूर्व आनंद मानवा लाग्यो. वली कोइये जहने मोहराजाने कयुं के, अरे राजा साहेब ! जागो छो के उंघो छो, तमारा अज्ञानादिक दस सेनापतिने तो मार्या, तोये तमारी उंच ना गइ के, आवी वर्तणुकथी राज्य शी रीते करशो. दुश्मनो पूरजोसमा आगळ ववी तमारी सेनानो कचरवाण काढता जाय छे! माटे चेतो! नहि तो तमारुं राज्य जवानी तैयारीमा छे.
ए सांभली मोहराजा, हायरे बाप ! करतो दोडथो, अने एकदम घांटो पाडी बोल्यो के, कोइ म्हारा आत्माने आनंद कराब्या | वनार वीरपुरुष छे के ! एटले व्याक्षेप काठीयो अग्यारमो उठीने बोल्यो के, खुदाविंद दुश्मनोने धूळ न चटाडं तो हुँ
दुनिया पार जाउं, एम कही प्रतिज्ञा करी श्वासभर दोडयो, अने शीघ्रताथी धर्म सांभलनारना शरीरमा पेठो. तेथी ते शुद्ध बुद्ध भुली विचारवा लाग्यो के, साधु व्याख्यान तो वांचे छे ! पण समजण बराबर पडती नथी, कंठ पण बराबर नथी, सभाने पहोंची वले तेवो कंठ पण नथी. काइ रमत गमतनी वातोना गपाटा सपाटा पण गुरुजी हांकता नथी. इंहा आवद्यु नकामुं छे, ज्यां आनंद न थाय, त्यां कान फोडा तोड शी, कांइ कथा वार्ता कहेता होय, काइ दुहा टुचका छोडता होय, तोये लगार मनने संतोष, पण आमा कांइ ज नथी, माटे चालो उठो माइ रस्ते पडो, वली बधुये मूइ रघु, पण | पहेला तो उपाश्रय ज सारो नथी, हवानुं अने बारी बारणानुं तो नाम ज नथी, जीवडानी उत्पत्तिनो तो पार ज नथी, नथी सारा चंद्रवा पूंठीया, नथी सारा रुमालो, नथी उत्तम तोरणो, ठवणी तो जाणे पेला कालनी, पाठु पाटली के चाबखी तो चांदरडामा, गुरुने पुरुं वांचताये आवडतुं नथी. तो सभारंजन केवी रीते थाय ! बापु ! सभाने खुशी करवी ते काइ नानी सुनी वात नथी, महाज्ञान जोइए छीए. ते तो काइ देखवामां आवतुं नथी. वली सारी सारी स्त्रियो बनीठनीने
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