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चौमासी
व्याख्यान ॥
॥ ६५ ॥
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तथा विधि सहित आवश्यकादिक क्रिया करवानो, तथा निरंतर पोतानी शक्ति मुजब तप कर्म करवानो, तेमज यथाशक्ति व्रत क्रियाने अंगीकार करी तेनुं प्रतिपालन करवानो, तेमज निरंतर ज्ञान ध्यान करी नवीन ज्ञान शीखवानो, तथा शीखेलाने सी याद करवानो धर्म श्रीजिनेश्वर महाराजना आगमने विषे श्रावक श्रेष्टनो धर्म कहेल छे, अर्थात् ए उपरोक्त प्रमाणे धार्मिक प्रक्रिया करनारने शास्त्रकार महाराजा श्रावक वर्गने विषे श्रेष्ट गणे छे.
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त्यारे हवे सिद्ध थयुं के, धर्महीन माणस कदाच श्रावकपणानो दावो करवा जाय, तो उपरोक्त वचनो तेना श्रावकपणाने दुर करे छे, माटे ज धर्मरहित प्राणि श्रावकनी गणत्रीमां गणाइ शकतो नथी. वर्त्तमानकालने विषे धर्मगुरुओ भव्यजीवोने बोध 5 आपवा बेसे तो, प्रथम तेने सांभलवा ज आवे नहि, कदाच सांभलवाना भाव होय, तो पण सांभलवा जवानुं मन न थाय, कदाच मन थाय तो, संसारना अनेक प्रकारना आवरणो आडा आवे, कदाच आवरणोने हठावे तो, प्रमाद उदय आवे, थाय छे, जइए छीये, घणो टाइम छे. आज नहि तो काले, अठवाडीये, पखवाडीये, हजी धर्मगुरु रहेवाना छे, विगेरे भावनाथी आलसु बने, कदाच मातापिता भाई बहेन भार्या मित्र पाडोशी विगेरेना दबाणथी जाय, तो शून्य चित्ते सांभले एक कानेथी सांभळी बीजे काने काढी नाखे, धर्मगुरु पुछे अगर बीजा पुछे तो, शुं करीये, केम करीये, घणी उपाधि, घणी जंजाल छे, कांइ गम पडती नथी. बीजा सांभळीने ठपको आपे त्यारे कहे के, करमना काठीया वलग्या छे. ते कांइपण धर्म करवा सांभलवा देता नथी, कर्मना काठीया पासे अमारुं कांइपण जोरशोर चालतुं नहि होवाथी जिंदगी एके जाय छे, थयुं त्यारे केम करीये जेम बनवानु हशे तेम बनशे, आवा पराक्रम शून्य वचनोने बोली धर्मक्रिया नहि करतो पापना पोटला बांधी,
= 11 & 144 11
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