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चौमासी व्याख्यान ॥
काठीयार्नु स्वरूप॥
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कुगतिरूपी केदखानाथी मुक्त करी पोताना आत्माने तेना अंदर नाखे छे, माटे परोपकार करनारा एवा ते लोको पर हुं क्रोध केम करूं, वली ते लोको पोताना पुन्यकर्मनो व्यय करी म्हारा पापकर्मने दूर करे छे, माटे म्हारा ते परम बांधवोने | म्हारे दूषण आपq लायक नथी, वली पण तेमणे प्रेरणा करी करेल वधबंधनादि मने संसारथी मुक्त करनारा होवाथी मने हर्षने माटे थाय छे, पण आ लोकोने ज ते अनंत संसारना हेतुभूत थाय छे, ते ज मने बहुज पीडा करनार थाय छे, वली पौर लोकोये मने तर्जना करी छे, पण मार्यो नथी, कदाच मार्यो होय, तो पण म्हारा अंगोपांगने छेद्या नथी. कदाच तेम कयु होय, तो पण म्हारो जीव लीधो नथी, कदाच जीव लेशे, तो पण बांधवजनोना पेठे लुटेल नथी, माटे आ महानुभावो म्हारा आत्मारूपी घरने विषे अनादिकालथी प्रवेश करी अनादिकालथी वास करी निरांते बेठेल, एवा भाव चोरोने काढवामां सहायभूत थाय छे. ए प्रकारे शुभ भावनाने भावता क्षपक श्रेणि उपर आरोहण थयेला द्रढप्रहारी महात्मा केवलज्ञान पाम्या. अहो! महान् आश्चर्यनी वात छे के, तपरूपी अगस्ति कोइ लोकोत्तरपणे प्रगट थाय छे के, जेना प्रगट थवाथी कर्मरूपी समुद्र फरीथी प्रगट थतो नथी. लोकोने विषे कहेवत छे के माटी ज्यां उत्पन्न थाय छे त्यांज पडे छे, तेवी ज रीते आ महात्माये ज्यां कर्म बांधेल हता त्यां ज छोडया. देवताओनो समूह आव्यो, सुवर्ण कमलनी त्यां रचना करी, तेमना उपर बेसी दृढप्रहारी महात्माये धर्मदेशना दीधी. घणां जीवो आश्चर्यना साथे प्रतिबोध पाम्या अने केवली महात्मा घणां भव्य जीवोने बोध करी शाश्वत सुखना भोक्ता थया. ए द्रष्टान्तने देखी जे महात्मा जीवो भावना सहित तपकर्मने करे छे, ते महात्मा द्रढप्रहारीना पेठे सुखी थइ कल्याण मंगलनी मालाने पामे छे.
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