SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 26
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अब हम इन तीनों शब्दों की विशेष व्याख्या देखते हैं। अरि अर्थात् शत्रु, हंताणं अर्थात समाप्त करनेवाले। इस शब्द से हमारे नमस्कार उनको होते है जो शत्रुओं का नाश करने में समर्थ है। शाब्दिक दृष्टिकोण से अर्थप्रयोजन बडा अजीब है। जगत् सर्व जीवों के साथ मैत्री का तात्पर्य रखनेवाले क्षमा जिनकी साहजिकता है। करुणा जिनका स्वभाव है। उनके लिये शत्रु नाश का अर्थघटन अनुचित लगता है। गणधर भगवंत इसका समाधान और समर्थन अपने पूर्ण योग बल से करते हैं। उनका कथन है दुश्मन कौन है ? यह समझना जरुरी है । दुश्मन, वैरी, शत्रु चाहे कुछ भी कहो कोई खराब नहीं है । शत्रुओं के बीच में रही हुवी शत्रुता, वैर या दुश्मनावट खराब है । जब शत्रुता समाप्त हो जाती है तब शत्रु मित्र बन जाता है। . एकबार परमात्मा महावीर से किसीने पूछा कि प्रभु ! आप इतने दयालु हो, कृपालु हो, सामर्थ्य संपन्न हो कि तीन जन्म से पूर्व ही आपने सभी जीवोंको मोक्ष ले जाने की भावना से लाखों मासक्षमण किए थे। ऐसे सामर्थ्य संपन्न आपके दुश्मन क्यों थे ? गोशालक, संगम, शूलपाणीयक्ष, चंडकौशिक आदि ऐसे भयंकर जीवों ने आपके ऊपर अनेक उपसर्ग किये थे। अनार्य देश में लोगोंने प्रभुको उलटे लटकाए थे। केवलमात्र इसीकारण कि, प्रभु अपना परिचय दे कि मै वर्धमान राजकुमार हूँ। महाराजा सिदार्थ का पुत्र हूँ। तुम्हारा भविष्य का भगवान हूँ। तुम मुझे क्यो परेशान करते हो? इन कर्मो से तुम कैसे मुक्त हो पाओगे ? ऐसा कुछ भी नही कहनेवाले प्रभु को हम कैसे कह सकते है कि यह शत्रुको समाप्त करनेवाले है। कोई मुकाबला नहीं कोई मंत्रोच्चार नहीं । कोई शब्द घोष नहीं। ऐसे भगवान को हम कैसे कहेंगे अरि + हंताणं । सोचो तो सही शत्रु के साथ जिन्होंने वाणी से कुछ भी नहीं कहा हम उन्हे शत्रु को समाप्त करनेवाले कैसे कह सकते है ? कईबार उठनेवाला यह प्रश्न मैने एकबार प्रभु से पूछ ही लिया कि प्रभु ! आपने दुश्मन को कभी एक शब्द भी नहीं कहाँ तो, फिर गणधरों द्वारा प्रस्तुत पद दुश्मन को समाप्त करनेवाले अरिहंत की व्याख्या कैसे उचित हो सकती है ? परमात्मा ने कहा इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए तुम्हें प्रति प्रश्न करना पडेगा कि मेरा दुश्मन कौन था ? गोशालक, संगम, शूलपाणीयक्ष, चंडकौशिक यह सब तो मेरे दुश्मन ही नहीं थे। दुश्मन तो वे होते है जिनके प्रति हमें द्वेष हो । द्वेष हमें उनके प्रति होता है जो हमारे भीतर का नुकसान करते हो। इन में से किसी ने भी मेरे आंतरिक गुणों में कोई नुकसान नहीं पहुंचाया। अबोध होते हुए भी उन्होंने समता गुणों में स्थिर रहने में सहायता दी थी। कर्मक्षय में सहायक इन सबको मै दुश्मन कैसे मानु ? अबोध होने से वे जो चेष्टा करते थे इसीकारण उनपर मुझे करुणा आती थी । वत्स ! दुश्मन सिर्फ वे होते है जिनके प्रति हमें दुश्मनावट होती है। शत्रुता समाप्त होने पर कोई हमारा दुश्मन नहीं होता। __ पुरिसा ! तुममेव तुम मित्तं ! किं वा बहिया मित्तमिच्छसि। , वत्स! तु ही तेरा मित्र है। बाहर न कोई तेरा मित्र है न कोई शत्रु। शत्रुता समाप्त होने पर कोई शत्रु नहीं रहता है। शत्रु को नहीं शत्रुता समाप्त करो। वत्स ! गुनगुना उन पंक्तियों को जो मुक्ति की मंगल आरती है। सिद्धि का मंगलाचरण है। साधना का वरदान है।
SR No.032717
Book TitleNamotthunam Ek Divya Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherChoradiya Charitable Trust
Publication Year2016
Total Pages256
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy