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________________ खामेमि सव्वेजीवा, सव्वेजीवा वि खमंतु मे। मित्ती मे सव्व भूएसु, वेर मज्जं न केणई॥ यहाँ पर मुझे किसी से वैर न हो ऐसा कहा है । मेरा कोई वैरी नही ऐसा नहीं कहा है । वैर वैरी में नहीं हमारे भीतर होता है। वैर समाप्त होनेपर वैरी अपने आप समाप्त हो जाते है अर्थात वैरी मित्र बन जाते हैं। परमात्मा का स्वरुप बाताते हुए कहा है “विसहर विसनिन्नासं" विषधर का नाश करनेवाले नहीं परंतु विषधर के विष का नाश करनेवाले। परमात्मा महावीर ने चंडकौशिक सर्प का नाश नहीं किया था परंतु उसमें निहित दृष्टिविष का नाश किया था। अरि अर्थात शत्रु। हंताणं अर्थात समाप्त करना। यह अर्थ तो तुम ठीक समझ रहे हो परंतु अरिको पहचान नहीं रहे। शत्रु कही बाहर नहीं भीतर है। अन्य जीवों के प्रति हमारा रहा हुआ वैमनस्य, राग, द्वेष, विषय, कषाय आदि दोष हमारे दुश्मन हैं। जो हमारे भीतर के गुणों पर आघात करते हैं उनको समाप्त करना साधना है। इसीकारण अपूर्व अवसर में कहा है - "क्रोध प्रत्ये तो वरते क्रोध स्वभावताः" क्रोध के उपर क्रोध करो। जिन शासन के सिवा यह कला कहाँ से उपलब्ध हो पाएगी। "नमो" की उत्पत्ति नाभि से होती है। क्रोध की उत्पत्ति कहाँ से होती है? नाभि से, हृदय से या मस्तिष्क से? मस्तिष्क से होती है ऐसा कोई कहे तो इसका प्रमाण क्या है? इसका उत्तर पाने के लिए आपको जब गुस्सा आता है आप आईने के सामने खडे हो जाओ आपको उत्तर मिल जाएगा।अथवा किसी ओर को गुस्सा आया हो तो उन्हें आप अपने केमेरे में कैद कर लो । क्रोध आते ही मस्तिष्क में उत्पन्न क्रोध ललाट पर आएगा । भाग्य दर्शी ललाट उलट पुलट, आडी तिरछी रेखाओं से जटिल हो जाएगा। भौंहे टेढी हो जाएगी। आँखें लाल हो जाएगी। नाक फूलने लगेगा। होंट फडफडेंगे। ये तो बाह्य लक्षण हुए। अब क्रोध भरा मस्तिष्क भीतर की प्रक्रिया सुरु करता है। जो दिखती नहीं पर अनुभव होता है। हृदय की धडकने बढना। बी.पी. बढमा। अॅड्रनल ग्रंथि, लिवर, किडनी आदि पर असर होती है। हाथ पाँव थरथराते है। और एक बात आप जानते है ना क्रोधित व्यक्ति अपना पाँव जोर से पटकता है और वो भी दाहिना पाँव। कभी सोचा है आपने कि ऐसा क्यों होता है? इस प्रक्रिया से मस्तिष्क में उत्तेजित श्रावों की जटिलता कम हो जाती है और मस्तिष्क का प्रेशर कम होता है। जमीन पर पांव पटकने से अर्थीग हो जाने से वातावरण में हलकापन महसूस होता है। भगवान कहते हैं - कोहो पीई पणासेइ। क्रोध प्रीति का नाश करता है। क्रोध से प्रेम का नाश होता है प्रेमी का नहीं। दूसरा कन्सेप्ट है “अरिहं + ताणं"। अरिहं शब्द अर्हता के अर्थ में प्रस्तुत है। अर्हता अर्थात् योग्यता, सामर्थ्य । ताणं अर्थात् त्राण, रक्षण। जब जब प्रोटेक्शन की आवश्यकता हो तब तब अरिहंत परमात्मा रक्षण का सामर्थ्य रखते हैं। समस्त जीवों के रक्षण का सामर्थ्य उनका स्वभाव है। उनके स्वभाव की यह धारणा तीन भव पूर्व की साधना है। “सविजीवका शासन रसिं"की महान भावना से तीर्थकर नामकर्म का निकाचन होता है। पुण्य जनित इस कर्म में अनेक अतिशयोंका विशाल पुंज होता है। एक जीव जब सिद्ध होता है तब अव्यवहार राशि का
SR No.032717
Book TitleNamotthunam Ek Divya Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherChoradiya Charitable Trust
Publication Year2016
Total Pages256
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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