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________________ राजकीय भोज भोगने का आंमत्रण देना हैं। एकबार उसने बहुत बडा आरंभ कर भगवान के पास अपनी मनोभावना व्यक्त की । परमात्मा ने कहा, भावविभोर भरत ! तेरे ये मुनिबंधु महासत्त्व संपन्न अणगार हैं। वे निर्दोष सुख और निर्दोष आनंद का उपभोग कर रहे हैं। राजकीय और विषयानंदी किसी भी पुद्गलों में अब उन्हें कोई रस नहीं हैं। यह : राजभोग तो उनके लिए वमनतुल्य हैं। परमात्मा की बात सुनकर भरतेश्वर को बहुत पश्चाताप हुआ । अहो धन्य हैं अभोगी दशावाले मुनियों को। मेरे जैसे पापीने उन्हें भोग के लिए आमंत्रण दिया। अब मैं उनकी कैसे सेवा कर सकुँ इसके बारे में वे सोचने.. लगे। एक विकल्प ने उन्हें झकजोरा । देह टिकाने के लिए भोजन आवश्यक हैं। क्यों न मैं भोजन के लिए मुनियों को आमंत्रित करूँ । शिघ्र ही उन्होंने पाँच सौ गाडियाँ भरकर भोजन सामग्रियां मंगवाई। मुनियों को आमंत्रण दिया परंतु परमात्मा ने इसे राजपिंड कहकर सदोष बताया। निराश हुए भरतेश्वर को आस्वस्त करते हुए उपस्थित शक्रेंद्र ने भगवान को पांच अवग्रह समझाने की बिनती की। परमात्मा द्वारा अवग्रह का स्वरुप जानकर भरतेश्वर ने देवेंद्र से पुछा कि लायी हुई सामग्री का क्या करना चाहिए ? इन्द्र ने उन्हें सुनावकोंको निमंत्रित करने का कहा । उनके इस परामर्श से प्रसन्न होकर राजा ने श्रावकों के लिए कायमी भोजनशाला खोलकर भोजन का निमंत्रण दिया। स्वयं भरतेश्वर प्रत्येक श्रावकों का योग्य परीक्षण करके कांकणी रत्न से उनके हाथपर तीन रेखाएं खींचते थे। ये रेखाएं ज्ञान दर्शन और चारित्र की प्रतिक गिनी जाती थी। साथ ही जितो भवान् वर्धते ... माहण माहण... बोलना उसके बाद वहाँ रहकर वे निरंतर अपूर्व ज्ञानाभ्यास करते हैं। उनकी और उनके परिवार का संपूर्ण उत्तरदायित्त्व भरतेश्वर स्वयंपर ले लेते हैं। श्रावकों की यह भोजनशाला मेरी मृत्यु के बाद भी निरंतर चलती रहे ऐसी व्यवस्था करने का उन्होंने आदेश दिया। इतिहास अनुसार उनके पुत्र सूर्य यश ने भोजनशाला तो चालु रखी थी। परंतु कांकणी रत्न न होने से उन्होंने सोने के तीन तार की राखी बनवाई। उसके बाद भी सोने के तार की जगह ने रजत के तीन तार और उसके बाद सुत के तीन तार बांधने का प्रचलन रहा । सुत के इन तारों को जैनोपवीत कहा जाता था । यही जैनोपवीत समयांतर में यज्ञोपवीत बन गया और माहण कहनेवाले ब्राम्हण के नाम से प्रचलित हो गए। ऐसी अद्भुत भोजनशाला चालुकरके परंपरागत चलाने की व्यवस्थाकर भरत महाराजा ने एकबार भगवान ऋषभदेव से पूछा प्रभु ! यह शासन अवसर्पिणी काल के अंतिम छोर तक इसीतरह झांक झमाल होकर चलता रहेगा न? आपका दिया हुआ श्रावकधर्म सदा पुरबहार खिलता रहेगा न? प्रभु ने उत्तर में कहा, भरत ! तुम्हारे प्रश्न का अभिप्राय भोजनशाला से गर्भित हैं । तुम्हारी यह भाव भरी भोजनशाला नववें तीर्थंकर के शासनतक बराबर अविच्छिन्न रुप से चलेगी। घबराए हुए भरत ने पूछा भगवन् ! उसका नाश कैसे होगा? भगवान ने कहा भरत यह जिनशासन इतना प्रभावशालि हैं कि उसे अन्य कोई शासन प्रभावित कर उसका नाश नहीं कर सकता। इसी शासन में शासन के नाम से निकले हुए शासन का नाश कर देते हैं। जैसे अन्न में जैसा अन्न होता हैं वैसे ही कीडे 136
SR No.032717
Book TitleNamotthunam Ek Divya Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherChoradiya Charitable Trust
Publication Year2016
Total Pages256
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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