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________________ ४८ मिनिट्स का होता हैं। २ - ३ - ४ जितनी आपकी स्थिरता उतने अंतर्मुहूर्त का सामायिक व्रत आप कर सकते हो। यह व्रत लेने के लिए करेमि भंते सूत्र का उच्चारण किया जाता हैं। भंते शब्द की चर्चा हम भगवंत पद में कर चुके हैं। भय का अंत करनेवाले, भव का अंत करनेवाले और भ्रम का अंत करनेवाले भंते इस सूत्र का उच्चारण होते ही जगत् के सभी जीव अभय प्राप्त करते हैं। सोचो, छोटा सा भी सामायिक व्रत कितना महान हैं। आज सामायिक करते समय करेमि भंते सूत्र का उच्चारण करते ही आपसे उतना ही अभय प्राप्त करते हैं जितना मुनि की गोदी में मस्तक रखते ही मृगों को प्राप्त हुआ हैं और वैसे ही जैसे आपका बच्चा आपकी गोदि में सुख, शांति और सुरक्षा का अनुभव करता हैं। संयति राजा मुनि के इस कथन को सुनकर संयम स्वीकार करते हैं। नमोत्थुणं अभयदयाणं की साधना की शुरआत करते हैं । मुनियों में सातों भयों का स्वरुप समझाकर सर्व भयों से मुक्त करते हैं। वत्स ! भय टलता हैं तो भव टलते हैं। आज तो आपने करेमि भंते सूत्र द्वारा सर्व जीवों को आजीवन अभय दिया हैं और अभयदयाणं द्वारा आपको परमात्मा से अभय प्राप्त हो गया हैं अतः आप आजसे सर्व भयों से मुक्त हो हो । भय के सात प्रकार हैं- १. इहलोक भय - २. परलोक भय ५. आजीविका भय ३. आदान भय ६. मरणभय ४. अकस्मात भय ७. अपयश भय इहलोक भय अर्थात् स्वयं के समान जातिवाले जीवों से डरना । जैसे कि एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य से डर लगना। यह भी कैसी विटंबना कि हमें हमारे ही जातवालों से भयभीत होना । सर्व जाति के जीवों में सबसे श्रेष्ठ मनुष्य गिना जाता हैं। स्वयं भगवान को भी भगवान बनने के लिए यहाँ जन्म लेना पडता हैं। मनुष्य से अतरिक्त अन्य किसी भी जाति में स्वयं की जाति का भय किसी को नहीं हैं। सिंह जैसे जीव को भी सिंह से कभी भय नहीं होता। एक मनुष्य ही ऐसा हैं जिसे मनुष्य जात से संपूर्ण भय हैं। पैसा हैं तो चोरी का भय । प्रेम हो तो टूटने का भय। दूसरों का हत्याद्वारा, स्वयं का आत्महत्याद्वारा निरंतर भय बना ही रहता हैं। माता पिता संतान, मित्र, स्वजन, साथी पता नहीं पर यहाँ सब आपस में भयभीत हैं। प्रीत का, जीत का, मित का, हित का किसी का भी कहो परंतु यहाँ मनुष्य मनुष्य से भयभीत हैं। व्यवसाय हैं तो कॉम्पिटिशन हैं। विवाह हैं तो डायवर्स भी हैं इसतरह सब सर्वत्र भयभीत हैं। 135 आलोक भय को समझने के लिए भगवान ऋषभदेव का जगत् को एक महान संदेश हैं। ग्रामानुग्राम विचरते हुए भगवान ऋषभदेव एकबार अष्टापद पर्वतपर पधारे। भगवान उस समवसरण में भरतचक्रवर्ती भी पहुँचे। भगवान की उपशम एवं भाववर्धक देशना सुनकर भरतचक्रवर्ती को विचार आया मैं कितना लोभी हूँ कि मैं अपने छोटे छोटे भाइयों का राज्य छीन लिया। कौए जैसे क्षुल्लक जीव भी काऊं काऊं कर अपने जाति भाईओं को इकट्ठे कर खाद्य पदार्थ को भोगता हैं। भातृद्रोह के कलंक को मिटाने के लिए मुझे मेरे सभी भाइयों को
SR No.032717
Book TitleNamotthunam Ek Divya Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherChoradiya Charitable Trust
Publication Year2016
Total Pages256
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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